1 मई मजदूर दिवस सुनने में कितना अच्छा लगता है, मजदूरों का दिन खैर ये सुनने में ही अच्छा है. हक़ीक़त में मजबूर का दूसरा नाम ही मजदूर है और दिन तो बस साहबों का होता है, मजदूरों का तो बस रोज़ होता है, जो उनकी मेहनत पर उनकी ख़ुराक तय करता है, किसी रोज बीमार हो गये तो वो ख़ुराक भी नहीं मिलती खैर साहबों को मजदूर दिवस के नाम पर एक दिन की छुट्टी तो मिल ही जाती है. मजदूरों को तो पता भी नहीं एक पूरा दिन और दिवस का आडम्बर बस उनके नाम है बाकी रोज़ कोल्हू के बैल की तरह खटने वाले इन ग़रीबो को पूछता कौन है.

मजदूर वोटर तो होते है मग़र अनपढ़ जो ठहरें सत्ता की पेच इनके पल्ले कहा परती, ये भूख के मारे लोग है दो वक्त की रोटी पर बिक जायेंगे. सरकार इनके नाम पर वोट तो ले लेती है और फ़िर क्या, लकड़ी के कुर्सी के लिये लड़ने वाले ये नेता हार मांस के बने मजदूरों को भूल जाते है, मजदूरों की हालत देख कर लगता है ना इनका देश है न इनके लिये कोई सरकार है.

मजदूर के रोजगार की कोई गारंटी नही होती दिहाड़ी मजदूरों के रोज मालिक बदलते है जिनके घर- मकान, खेत-खलिहान या अन्य काम कर इनको खाने बस का पैसा मिल जाता है, और कुछ मजदूर मासिक भत्ता पर होते है, मजदूर के जीवन मे भी एक मालिक होता है, ये मालिक बिल्कुल उसी सामंतवादी व्यवस्था के जमींदारों के तरह होता है जिनके मिल- फैक्ट्री- कारख़ाने और इमारतों के काम में मेहनत कर इन मजदूर की भूख मिटती है, जब तक शरीर में जान है ये मजदूर अपने मेहनत के दम पर पेट तो पाल लेते है लेक़िन जब यहीं मजदूर बीमार या बूढा होता है तो इसके साथ- साथ भूख की मार झेलता है उनका पूरा परिवार.

हाल में ही मजदूरों को इस देश मे मिलने वाली सुविधा की तो ख़बर आपको मिली होगी, जब ये मजबूर लोग पैदल महानगरों से अपने गांव के तरफ़ हजारो किलोमीटर पैदल चल कर गांव पहुँचे, वैसे मॉर्निंग वॉक का शौक रखने वाले लोग इन मजदूरों की हजारो किलोमीटर के पदयात्रा को क्या समझेंगे.

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एक मजदूर का भी घर होता है,परिवार होता है एक मजदूर भी बाप होता है, मगर वो मजदूर होता है इसलिये उसके नज़रो के सामने उसके बच्चे या तो भूख से तड़पते है या किसी महामारी की भेंट चढ़ जाते है, सत्ता – शाषन के नजर में ये अनपढ़ लोग है चुनाव आते ही इन्हें नए सपनों को दिखा कर लूट लिया जायेगा, और फिर से पांच साल उनके हाल पे छोड़ दिया जाएगा.

इस लेख में हमने मजदूरों से जुड़ी आकंड़े नहीं लिखे है, लेक़िन कुछ आँकरे खंगाल लीजिएगा फिर मजबूर और मजदूर की समानता समझ आ जायेगी. कुछ सवाल जिनके आंकड़े आप खुद ढूंढ ले :-

.देश में कितने मजदूर है, कितने मजदूरों के पास घर है, कितने मजदूर बीमारी से जूझते है, हर साल आने वाली बीमारी और महामारी में कितने मजदूरों के बच्चें मरते है, मजदूर को काम ना मिले तो उसका पेट कैसे भरेगा ?

ये मजदूर शौक से दिल्ली -मुम्बई या सूरत जैसी कोई शहर नहीं जाते पेट की मार से काम की तलाश में जाते है, और काम के नाम पर मजदूरों का बस शोषन होता है. सारे वादे धरे रह जाते है क्योंकि ये मजदूर भी जानवर की तरह बेजुबान होते है और सत्ता के गलियारों में हर दल के लिये एक आदर्श वोटर जिसका ना कोई राय है, ना कोई मत ना विचार. एक ऐसा तबका जिसे बस भूख की भाषा समझ मे आती है, और ये संख्या बहुत विशाल है..

अभिषेक रंजन, मुजफ्फरपुर में जन्में एक पत्रकार है, इन्होंने अपना स्नातक पत्रकारिता...