जैसे चटक धूप को बर्फीली हवा चिढ़ा रही है…और लोग चाहकर भी उस गुनगुनी धूप का आनंद नहीं ले पा रहे हैं। वैसे ही कुछ हालात दिल्ली के चुनावी महासमर में भी बने हुए हैं। अलगअलग पार्टी के प्रत्याशी इसी धूप और हवा की तरह हो गए हैं। इसीलिए प्रचार के लिए तरह- तरह के जतन कर जन जन को रिझा रहे हैं। लेकिन दिल्ली ने वो भी दौर देखा है जब हाइटेक चुनावी मोड से दूर प्रचार बैलगाड़ी पर होता था। प्रत्याशियों गलियों में घूमते थे। रिक्शा के पीछे लाउडस्पीकर पर चुनावी नारे गूंजते थे। अब भले हार-जीत के बाद ईवीएम का गला पकड़ा जाता है लेकिन बैलेट बॉक्स ही सब तय कर देते थे। यह दिल्ली वालों की परिपक्वता ही थी कि पहली बार नोटा का प्रयोग भी यहीं किया गया।

मुश्किलें कम नहीं

दिल्ली अभिलेखागार विभाग में उपलब्ध दस्तावेजों की मानें तो दिल्ली के पहले चुनाव की तैयारियां बहुत कठिन थीं। कारण, यहां विस्थापितों की संख्या ज्यादा थी। दिल्ली के विभिन्न इलाकों में ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा थी जो अस्थाई झोपड़ियों और टेंट, तंबू आदि में रह रहे थे। कई परिवार तो ऐसे भी थे जिन्होंने झोपड़ियों आदि में रहने के लिए रजिस्ट्रेशन कराया लेकिन फिर रोजी रोटी की तलाश में कहीं और चले गए। ऐसे में उनके नए पते पर उनका इंरोलमेंट उस समय बहुत मुश्किल इसलिए भी था क्यों कि उनके पास पर्याप्त दस्तावेज नहीं थे।

बहरहाल इन तमाम मुश्किलों के बावजूद भी आराम से चुनाव संपन्न हुआ। अब तो लोग नजदीकी मतदान केंद्र तक जाने में कष्ट महसूस करते हैं लेकिन तब डीटीसी को जिम्मेदारी दी गई थी अतिरिक्त बस चलाई गईं थीं ताकि ऐसे लोग जो एक जगह से दूसरी जगह गए हैं वो अपने पते पर आकर अपने मतदान का निर्वाह कर सकें। लोगों ने बगैर न नुकुर के ऐसा किया भी।

पहली बार बैलेट बॉक्स

अब तो हम लगातार हाइटेक चुनावी प्रक्रिया के साथ आगे बढ़ते जा रहे हैं लेकिन दिल्ली ने जब पहली बार बैलेट बॉक्स से मतदान किया था तो वह भी अजूबा था। वरिष्ठ नेता सुभाष आर्या कहते हैं कि लोगों के बीच इसे लेकर कई तरह की बातें होती थीं। उधेड़बुन थी कि आखिर एक छोटे से बक्से में इतने सारे लोग कैसे मतदान करेंगे। चुनाव अधिकरियों ने मतदाताओं को काफी प्रशिक्षण दिया था। मॉक चुनाव भी आयोजित किया गया था।

पहले चुनाव में अजूबा बने बैलेट बॉक्स के बारे में और अधिक जानकारी मुख्य चुनाव कार्यालय अधिकारी के कश्मीरी गेट स्थित कार्यालय में बने संग्रहालय में दिखती है। जिसमें बकायदा बैलेट बॉक्स का इतिहास दर्शाया गया है। एक पदाधिकारी ने बताया कि सन् 1951- 52 के चुनाव में प्रयुक्त बैलेट बॉक्स भी यहां रखे गए हैं। पहले पहल ये बॉक्स अपेक्षाकृत छोटे होते थे। लेकिन चुनाव दर चुनाव इनका आकार बढ़ता गया। 1977 के चुनाव में प्रयोग किया गया बड़ा बैलेट बॉक्स भी यहां प्रदर्शित है।

तीन भाषाओं में प्रत्याशी का नाम

दिल्ली में आपको सभी जगह साइन बोर्ड में तीन भाषाएं दिखाई देती हैं न उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी… इसी तरह उन दिनों चुनावों में बैलेट पेपर पर प्रत्याशियों का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में इन्हीं तीन भाषाओं में लिखा जाता था। किनारे पर संबंधित पार्टी का चुनाव चिन्ह छपा होता था। इसी पर ठप्पा लगाया जाता था। मतदाता को जिसे मत देना होता था, उसके सामने ही मोहर लगाता था। संग्रहालय में मादीपुर और हस्तसाल का बैलेट पेपर प्रदर्शित भी किया गया है।

घर-घर होता था प्रचार

सुभाष आर्या कहते हैं कि उस समय इतनी आबादी नहीं थी। इतना तामझाम भी नहीं होता था। चुनाव सादगी में संपन्न होता था। प्रत्याशी सुबह घर पर हवन, पूजा पाठ आदि करके निकलते थे। प्रत्याशी नामांकन के समय हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई को प्रस्तावक बनाता था। इससे एकता प्रदर्शित होती थी। प्रत्याशी जब प्रचार के लिए निकलते थे तो लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए ढोल बजता था। एक व्यक्ति ढोलक बजाते हुए आगे निकलता था और उसके दस कदम पीछे से प्रत्याशी अपने समर्थकों के साथ गुजरता था।

ढोलक की आवाज सुनकर गांव-देहात के लोग अपने घरों से बाहर निकलकर आ जाते। जो किसान खेतों में काम कर रहे होते थे वो आते एवं फिर एक छोटी सभा हो जाती। एक समय ऐसा भी था जब प्रत्याशी घर घर जाते थे। वोटर से बात करते थे। लेकिन अब तो प्रत्याशी सिर्फ कॉलोनी की मुख्य गली से ही गुजर जाते हैं। अब तो टेलीफोन, डिजिटली संपर्क ज्यादा हो पाता है। एक दिलचस्प वाकया सुभाष आर्या बताते हैं कि 1958 के चुनाव में हमें लोहे का भोंपू मिला हुआ था। यह दरअसल एक मुड़ा हुआ लोहा होता था। जिसे पीछे से काट दिया जाता था। इस वजह से जब बोलते तो आवाज गुंजती थी। इसी से बोलकर लोगों को इक्ट्ठा किया जाता था।

ब्रह्म प्रकाश भी बैलगाड़ी पर

वहीं इतिहासकार आरवी स्मिथ बताते हैं कि पुराने दिनों में चुनाव का महीना मेले की र्मांनद गुजरता था। इतना शोर शराबा नहीं था, आबादी दूर-दूर थी। पुरानी दिल्ली को छोड़ दें तो डिफेंस कॉलोनी, लाजपत नगर, करोल बाग सरीखे इलाकों में भीड़ होती थी। ब्रह्मप्रकाश सरीखे नेता भी बैलगाड़ी से प्रचार करते थे। उन दिनों बैलगाड़ी पर नेता अपने समर्थकों के साथ बैठ जाते थे। सुबह सफर शुरू होता था, दिन भर प्रचार होता था। साथ में चना वगैरह लेकर चलते थे एवं पानी पीते-चना खाते प्रचार होता रहता था। चुनाव के समय मानों मेला सा माहौल हो जाता था। एक के बाद एक नेता आते। पहले हालचाल पूछते और फिर अपना चुनाव प्रचार करते। जबकि पुरानी दिल्ली में सभाओं पर ज्यादा जोर रहता था। सभाएं भी अक्सर शाम से शुरू होकर रात तक चलती थी। इसे जलसा भी कहा जाता था। अद्भुत नजारा होता था। चंद फासले पर विभिन्न दलों के नेता जलसा करते थे एवं लोग ध्यान से सुनकर यह तय करते थे कि वोट किसे देना है।

हर प्रत्याशी पर होता था एक बैलेट

संग्रहालय में लगी तस्वीरों से आपको एक हैरान कर देने वाली कहानी भी पता चलती है कि किस तरह पहले एक प्रत्याशी के लिए एक बैलेट बॉक्स र्पोंलग स्टेशन में रखा जाता था। यानी यदि 20 प्रत्याशी हुए तो हर र्पोंलग स्टेशन पर 20 बॉक्स रखे जाएंगे और उनके सामने चुनाव चिह्न का चित्र लगाया जाएगा। यहां दिल्ली में बैलेट बॉक्स से ईवीएम तक का दिलचस्प सफर भी देखने को मिलेगा। बता दें कि साल 2004 में हुए आम चुनाव में करीब 10.75 लाख ईवीएम के इस्तेमाल के साथ भारत ई-लोकतंत्र में प्रवेश कर गया था। हालांकि भारत में ईवीएम का सबसे पहला प्रयोग 1982 में केरल में 50 मतदान केंद्रों पर हुआ था, लेकिन 1983 में ईवीएम मशीनों को इस्तेमाल में नहीं लाया गया। 1988 में ईवीएम मशीनों के प्रयोग का अधिकार मिला।

Input : Dainik Jagran

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