राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का इस शहर से खास लगाव रहा है। उन्होंने अपनी कालजयी रचना रश्मिरथी का लेखन एलएस कॉलेज में प्राध्यापक रहने के दौरान ही किया था। वर्ष 1950 में जब लंगट सिंह कॉलेज में स्नातकोत्तर में हिंदी की पढ़ाई शुरू हुई तो रामधारी सिंह दिनकर ने अध्यक्ष के रूप में इस विभाग में योगदान दिया। यहीं से उन्होंने रश्मिरथी की रचना की। यह रचना पूरे विश्व में प्रचलित हुई। 1952 तक वे इस कॉलेज में रहे। कवि दिनकर को आलोचक बनाने में इस शहर और खासकर एलएस कॉलेज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहां अध्यापन के दौरान दिनकर की आलोचनात्मक प्रवृत्ति निखरी। उन्होंने अपनी रचना संस्कृति के चार अध्याय के कुछ अंश भी यहीं लिखे थे। यह पुस्तक दिनकर की लंबी कार्य साधना का प्रतिफल है। इसका प्रकाशन 1956 में हुआ था और इसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। कॉलेज में दिनकर की स्मृतियों को संजोने के लिए पार्क का नाम उनके नाम पर रखा गया। इसमें उनकी प्रतिमा भी लगाई गई है। वहीं बीआरए बिहार विश्वविद्यालय के पीजी हिंदी विभाग के पुस्तकालय का नाम दिनकर के नाम पर रखा गया है। यहां दिनकर की प्रतिमा और उद्यान का भी निर्माण प्रस्तावित है।

रश्मिरथी आज की आधुनिक गीता

बीआरए बिहार विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ.सतीश कुमार राय कहते हैं कि दिनकर का बचपन अभाव में बीता और 1928 में उन्होंने पहली रचना विजयी संदेश लिखी थी। इसके बाद 1935 में रेणुका के प्रकाशन के बाद दिनकर सर्वमान्य हुए। मुजफ्फरपुर आने के बाद उन्होंने रश्मिरथी की रचना की। यह कर्ण के चरित्र को ध्यान में रखकर लिखा गया प्रबंध काव्य है। इसे मनुष्य की शक्ति, समतामूलक समाज और बंधुत्व को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है। इसमें साधना, संकल्प और संघर्ष तीनों की अभिव्यक्ति है। रश्मिरथी को लोग आधुनिक गीता के रूप में स्वीकार करते हैं। यह मनुष्य के कर्मवाद को पोषित करनेवाला काव्य ग्रंथ है। इसकी पंक्ति मानव जब जोर लगाता है पत्थर पानी बन जाता है। इसमें मानव की शक्ति का दिनकर ने उद्घोष किया है। इस काव्य के माध्यम से उन्होंने न्याय, धर्म, मनुष्यता और मानव की शक्ति का रेखांकन किया है।

रश्मिरथी के बाद ही संस्कृति के चार अध्याय के लिए जुटाने लगे थे नोट्स

एलएस कॉलेज के हिंदी विभाग के वरीय प्राध्यापक प्रो.प्रमोद कुमार बताते हैं कि 1942 के आंदोलन के समय जब जेपी व अन्य क्रांतिकारी गिरफ्तार हुए इसके बाद जब वे जेल से निकले तो 1944 में पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी सभा हुई। इसमें जेपी का नागरिक अभिनंदन किया गया। इसको लेकर दिनकर जी पहली बार साहित्यिक पटल पर प्रमुखता से उभरे, जिसमें उनका सामाजिक सरोकार भी दिखा। कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है… इससे उन्हें बाद में राष्ट्रीय कवि के रूप में स्वीकृति मिली। दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा कि एक बार उन्हें पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि तुम जेपी पर कविता लिखते हो पर मेरे पर नहीं। डायरी में उन्होंने लिखा कि उनके सामने कैसे कहता कि कविता लिखने की प्रेरणा हृदय से आती है। जेपी के साहसिक कर्म को देखकर प्रेरणा मिली तो मैंने कविता लिखी पर उनसे नहीं मिली इसीलिए नहीं लिखी। कहा कि इस बात को वे सार्वजनिक नहीं कह सकते थे। प्रो.प्रमोद ने यह भी बताया कि एलएस कॉलेज में रश्मिरथी के लेखन के बाद दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय लिखने की शुरुआत के लिए नोट््स जुटाने शुरू कर दिए थे। इसके बाद वे राज्यसभा चले गए थे।

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