फ़ोन से बात करते हुए रोते हुए इस मजदूर की तस्वीर पलायन वाले हर मजदूर का चेहरा बन कर हाल में खूब वायरल हो रहा है. रामपुकार पंडित ये उसी मजदूर का नाम है, दिल्ली कि एक सड़क पर उनकी तस्वीर खींची गई थी और यह तस्वीर अब मजदूरों के दर्द का प्रतिबिंब बन गया है.
दरअसल 11 मई को बिहार के बेगूसराय, बरियापुर के रहने वाले रामपुकार पंडित दिल्ली के निज़्जामुद्दीन पूल पर बैठ कर फ़ोन पर बात कर रहे थे और लगातार रोये जा रहे थे. लॉकडाउन के बीच ही उनका बेटा बीमार हो गया और उसकी हालत काफी गंभीर थी. वह सिर्फ यही चाहते थे कि एक बार वहां जाकर अपने बच्चे को देख सके.
“काफी मिन्नतों के बाद जाकर राम पुकार और उसकी पत्नी को एक बेटा हुआ था, और ऐसे कठिन समय मे वहां पहुच नही पा रहा था”
रामपुकार नजफगढ़ में घर बनाने के काम में मजदूरी का काम करने दिहाड़ी मजदूर था ,रामपुकार पंडित, तीन दिनों तक पूल पर अटका हुआ था, वायरल तस्वीर उसी वक़्त की है.
अतुल यादव, पीटीआई के फोटोग्राफर है, जिन्होंने उनकी तस्वीर ली और मदद की अपील की.13 मई की शाम उन्हें मदद मिल गई, और दिल्ली पुलिस के मदद से उन्हें पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंचाया गया. वे दिल्ली से बिहार जा रही स्पेशल पैसेंजर ट्रेन से बिहार पहुंचे. हालांकि वह अपने घर पहुंच चुके है,परन्तु अपने बच्चे को आखिरी बार देख नही पाए.उनकी यह इच्छा महज़ इच्छा ही रह गई, क्योंकि वहाँ पहुंच उन्हें कोरेंटाईन सेंटर में डाल दिया गया है.
अगर हम ये कहे कि हमारे देश को चलाने में मज़दूरों का बहुत बड़ा योगदान है ये कहीं से भी गलत नही होगा. हम जो खाते है,और जिस सड़क पर चलते है उसमें अन्य सामग्रियों के साथ इनका भी पसीना मिला होता है.रामपुकार जैसे ही हज़ारों मज़दूर हैं आज हमारे देश में जिनके पास न कोई रोज़गार है और न कोई साधन जिससे कि वह अपने घर वापस जा सके अथवा अपने परिवार की देख-रेख कर सके.इन्हीं मज़दूरों ने हज़ार-हज़ार किलोमीटर का सफर पैदल ही तय करने का निर्णय ले लिया है और निकल पड़े है.
हम मज़दूरों की कोई ज़िंदगी नहीं होती,हम तो बस अपने ही समस्याओं से लड़ते रहतें है, जब तक इससे बाहर निकलते है तब तक ज़िन्दगी ही खत्म हो जाती है”, ऐसा रामपुकार ने अपने एक कथन में कहा.
रामपुकार तो कैमरा के सामने रोते दिख गए,परन्तु बहुत मज़दूर ऐसे है जो कि रो भी नही सकते क्योंकि उन्हें अपने परिवार को भी संभालना है,अगर वह रो पड़े तो उनके परिवार के आंसू कौन पोंछेगा. कोरोना महामारी से लड़ रहा है हमारा पूरा देश,परन्तु जो असल लड़ाई है वो तो इन मज़दूरों की है जो कि रोज़ एक नई जंग लड़ रहे है.किसने सोंचा था कि एक दिन उन्हें यह भी दिन देखना होगा जब वह अपने घर जाने तक को तरस जाएंगे.सरकार से मदद क्यों नही मिल रही ?अगर मिल रही है तो इन मज़दूरों तक क्यों नही पहुंच रही?ऐसे कई सवाल है जो रोज़ ही हमारे मन में उठते है.मज़दूरों की यह लड़ाई उनका यह सफर उनके जीवन का सबसे दुखदायी सफर साबित हुआ,जिसकी पीड़ा पूरी ज़िंदगी ही उन्हें अथवा उनके परिवार वालो को झेलनी पड़ेगी. कोरोना के इस कहर में कई मज़दूरों ने अपनी जान गवाई है,बहुतों ने इस सफर के दौरान है अपनो को खो दिया.नाम है जो पूरे देश के प्रवासी मज़दूरों का एक चेहरा बन कर सामने आया है.दिल्ली कि एक सड़क पर उनकी तस्वीर खींची गई थी.
11 मई को बिहार के बेगूसराय स्थित बरियापुर निवासी रामपुकार पंडित दिल्ली के निज़्जामुद्दीन पूल पर बैठ कर फ़ोन पर बात कर रहे थे और लगातार रोये जा रहे थे.लॉकडाउन के बीच ही उनका बेटा बीमार हो गया और उसकी हालत काफी गंभीर थी. वह सिर्फ यही चाहते थे कि एक बार वहां जाकर अपने बच्चे को देख सके. “काफी मिन्नतों के बाद जाकर मुझे और मेरी पत्नी को एक बेटा हुआ था, और ऐसे कठिन समय मे मैं वहां पहुच नही पा रहा हूं” – रामपुकार.
नजफगड़ में घर बनाने के काम में मजदूर का काम करने वाले,रामपुकार पंडित,तीन दिनों तक पूल पर फंसे हुए थे.अतुल यादव, पीटीआई के फोटोग्राफर है जिन्होंने उनकी तस्वीर ली और मदद की अपील की.13 मई की शाम उन्हें मदद मिल गई, और दिल्ली पुलिस के मदद से उन्हें पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंचाया गया.वे दिल्ली से बिहार जा रही स्पेशल पैसेंजर ट्रेन से बिहार पहुंचे. हालांकि वह अपने घर पहुंच चुके है,परन्तु अपने बच्चे को आखिरी बार देख नही पाए.उनकी यह इच्छा महज़ इच्छा ही रह गई,क्योंकि वहाँ पहुंच उन्हें कोरेंटाईन सेंटर में डाल दिया गया है.
अगर हम ये कहे कि हमारे देश को चलाने में मज़दूरों का बहुत बड़ा योगदान है ये कहीं से भी गलत नही होगा.हम जो खाते है,और जिस सड़क पर चलते है उसमें अन्य सामग्रियों के साथ इनका भी पसीना मिला होता है.रामपुकार जैसे ही हज़ारों मज़दूर हैं आज हमारे देश में जिनके पास न कोई रोज़गार है और न कोई साधन जिससे कि वह अपने घर वापस जा सके अथवा अपने परिवार की देख-रेख कर सके.इन्हीं मज़दूरों ने हज़ार-हज़ार किलोमीटर का सफर पैदल ही तय करने का निर्णय ले लिया है और निकल पड़े है.
“हम मज़दूरों की कोई ज़िंदगी नहीं होती,हम तो बस अपने ही समस्याओं से लड़ते रहतें है, जब तक इससे बाहर निकलते है तब तक ज़िन्दगी ही खत्म हो जाती है”, ऐसा रामपुकार ने अपने एक कथन में कहा. रामपुकार तो कैमरा के सामने रोते दिख गए,परन्तु बहुत मज़दूर ऐसे है जो कि रो भी नही सकते क्योंकि उन्हें अपने परिवार को भी संभालना है,अगर वह रो पड़े तो उनके परिवार के आंसू कौन पोंछेगा. कोरोना महामारी से लड़ रहा है हमारा पूरा देश,परन्तु जो असल लड़ाई है वो तो इन मज़दूरों की है जो कि रोज़ एक नई जंग लड़ रहे है.किसने सोंचा था कि एक दिन उन्हें यह भी दिन देखना होगा जब वह अपने घर जाने तक को तरस जाएंगे.सरकार से मदद क्यों नही मिल रही ?अगर मिल रही है तो इन मज़दूरों तक क्यों नही पहुंच रही?ऐसे कई सवाल है जो रोज़ ही हमारे मन में उठते है.मज़दूरों की यह लड़ाई उनका यह सफर उनके जीवन का सबसे दुखदायी सफर साबित हुआ,जिसकी पीड़ा पूरी ज़िंदगी ही उन्हें अथवा उनके परिवार वालो को झेलनी पड़ेगी. कोरोना के इस कहर में कई मज़दूरों ने अपनी जान गवाई है,बहुतों ने इस सफर के दौरान है अपनो को खो दिया.