बिहार में राजनीति में मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के विरोधियों की कमी नहीं है। समय-समय पर ये विरोधी बदलते भी रहे हैं। एक दौर में उनके सहयोगी रहे लालू प्रसाद यादव आज उनके बड़े विरोधी हैं तो जनता दल यूनाइटेड में जीतन राम मांझी की अदावत व उनका फिर नीतीश के साथ आना भी लोग भूले नहीं हैं। फिलहाल लोक जनशक्ति पार्टी के अध्‍यक्ष चिराग पासवान से उनका राजनीतिक विरोध चरम पर है तो कुछ समय पहले तक दुश्‍मन नंबर वन रहे राष्‍ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्‍यक्ष उपेंद्र कुशवाहा अब गले मिल चुके हैं। कुशवाहा की आरएलएसपी का रविवार को जेडीयू में विलय हो गया। इसमें ‘लव-कुश समीकरण’ मजबूत होगा, जिसका फायदा दोनों को होना तय है।

15 सालों से बिहार के सत्‍ता शीर्ष पर नीतीश कुमार

बीते 15 सालों से बिहार की सियासत के केंद्र मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ही बने हुए हैं। जीतनराम मांझी के मुख्‍यमंत्री बनने की छोटी अवधि को छोड़ दें तो सरकार चाहे राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की हो या महागठबंधन की, साल 2005 से नीतीश कुमार लगातार मुख्‍यमंत्री बने रहे हैं। उनकी यूएसपी विकास व सुशासन के साथ समाज सुधार भी है।

नीतीश मुख्‍यमंत्री, पर जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी

बीते विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Election 2020) में नीतीश कुमार एनडीए के मुख्‍यमंत्री चेहरा (CM Face) रहे, लेकिन चुनाव परिणाम में जेडीयू राज्‍य की तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। एनडीए में उसे भारतीय जनता पार्टी (BJP) से कम सीटें मिलने के कारण नीतीश कुमार का मुख्‍यमंत्री बनना बीजेपी पर निर्भर हो गया। हालांकि, बीजेपी ने चुनाव पूर्व के अपने वादे के अनुसार नीतीश कुमार को ही मुख्‍यमंत्री तो बनाया, लेकिन उसने उपमुख्‍यमंत्री रहते आए नीतीश कुमार के करीबी माने जाने वाले सुशील कुमार मोदी (Sushil Modi) को बिहार से केंद्र की राजनीति में शिफ्ट कर अपने इरादे स्‍पष्‍ट कर दिए। संदेश है- अब पहले वाली बीजेपी नहीं रही।

बिहार व बाहर जेडीयू को झटका दे रही बीजेपी

बिहार में बनी नई सरकार तो एनडीए के न्‍यूनतम साझा कार्यक्रम (Common Minimum Program) पर चलेगी, लेकिन यह भी तथ्‍य है कि बीजेपी की कई नीतियां जेडीयू को असहज करती आईं हैं। इधर, बीजेपी सरकार में रहते हुए भी राज्‍य की कानून-व्‍यवस्‍था (Law and Order) पर सवाल खड़े कर रही है। खास बात यह है कि कानून-व्‍यवस्‍था की जिम्‍मेदारी संभालने वाले गृह विभाग की कमान खुद मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के पास है। बीजेपी ने बिहार के बाहर भी देश में कई जगह जेडीयू को झटका दिया है। कुछ समय पहले ही अरूणाचल प्रदेश में बीजेपी ने जेडीयू के विधायकों को अपने पाले में कर नीतीश कुमार को बड़ा झटका दिया था। मंत्रिमंडल विस्‍तार (Cabinet Expansion) भी बीजेपी की उदासीनता के कारण लंबे समय तक लटका रहा। खुद नीतीश कुमार ने इस बाबत ओर इशारा किया था। अभी भी कई मंत्री बनाए जाने शेष हैं।

बिहार में पहले से बड़ी है बीजेपी की भूमिका

स्‍पष्‍ट है, मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार में बीजेपी की भूमिका पहले से बड़ी हो गई है। ऐसे में जेडीयू के लिए जरूरी है कि वह अपना जमीनी आधार मजबूत करे। यहीं पर ‘लव-कुश समीकरण’ की जरूरत सामने आती है। बिहार में लव-कुश गठबंधन का इतिहास साल 1934 तक जाता है। तब क‍थित अगड़ी जातियों के राजनीतिक विरोध में कोइरी, कुर्मी और यादव जातियाें का त्रिवेणी संघ यदुनंदन प्रसाद मेहता, शिवपूजन सिंह और सरदार जगदेव सिंह यादव ने किया था। स्‍वतत्रता के पश्‍चात यादव समाज कांग्रेस के साथ तो कुर्मी व कोइरी समाजवादी विचारधारा के साथ चले गए। आगे यादवों के वोट बैंक पर लालू प्रयसाद यादव को मजबूती मिली तो कुर्मी व कोइरी वोट बैंक ने नीतीश को आधार दिया।

जेडीयू के लिए जरूरी ‘लव-कुश समीकारण’

नीतीश कुमार के वोट बैंक पर नजर डालें तो उन्‍होंने इसी समीकरण के सहारे खुद को सत्ता में मजबूत किया है। इस समीकरण में शामिल कुर्मी समाज की आबादी करीब चार फीसद तो कुशवाहा समाज की 4.5 फीसद है। नीतीश कुमार कुशवाहा समाज को साथ कर अपने इस समीकरण को मजबूत करना चाहते हैं। उपेंद्र कुशवाहा बिहार में कुशवाहा समाज के सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। ऐसे में उनके नीतीश कुमार के साथ हो जाने से जेडीयू को फायदा होगा।

मुख्‍यमंत्री नीतीश के बड़े विरोधी रहे कुशवाहा

नीतीश कुमार के साथ आने से फायदा उपेंद्र कुशवाहा को भी है। साल 2013 में उपेद्र कुशवाहा ने अपनी पार्टी आरएलएसपी बनाई। यह नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के उदय का दौर था, जिसमें बीजेपी ने कुशवाहा को प्रात्‍साहन दिया। आगे कुशवाहा ने एनडीए में शामिल होकर 2014 के लोकसभा चुनाव में तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और तीनों पर जीत दर्ज की। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में वे राज्यमंत्री बने। लेकिन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए में मिली 23 सीटों में से केवल दो ही जीत सके। इसके बाद धीरे-धीरे वे एनडीए में हाशिए पर चले गए। इस दौरान उन्‍होंने एनडीए में रहते हुए वे मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के बड़े विरोधी बने रहे।

सफल नहीं हुई नीतीश विरोध की राजनीति

उपेंद्र कुशवाहा एनडीए में रहते हुए न तो नीतीश कुमार के खिलाफ अपनी राजनीति में सफल हुए, न ही गठबंधन की मुख्‍य धारा में लौट सके। इससे निराश कुशवाहा ने साल 2018 में केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देकर महागठबंधन का दामन थाम लिया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2019) में कुशवाहा को महागठबंधन (Grand Alliance) मेंं मिली दोनों सीटों पर शिकस्‍त मिली। आगे कुशवाहा ने महागठबंधन से अलग हो गए। साल 2020 का विधानसभा चुनाव उन्‍होंने अपना गठबंधन बनाकर लड़ा, लेकिन इसमें मिली करारी हार के साथ उनकी रही-सही उम्‍मीद भी टूटती दिखी। पार्टी के अंदर भी विरोध के सुर फूटने लगे।

अब कुशवाहा को भी ‘लव-कुश समीकारण’ का सहारा

ऐसे में नीतीश के साथ कुशवाहा को ‘लव-कुश समीकारण’ में ही सियासी सहारा नजर आया। सीटें कम होने के कारण परेशान नीतीश कुमार को उपेंद्र कुशवाहा की जरूरत है। जाति की राजनीति से महत्‍वाकांक्षा पूरी करने में विफल उपेंद्र के लिए भी नीतीश जरूरी हो गए हैं।

अब देखना यह है कि जेडीयू में क्‍या पाते हैं कुशवाहा

अब आगे आरएलएसपी के जेडीयू में विलय के बाद कुशवाहा को क्‍या मिलता है, यह देखना शेष है। संभव है कि कुशवाहा को शरद यादव (Sharad Yadav) वाली राज्यसभा सीट दी जाए। शरद जेडीयू से अलग होने के बावजूद उसी का सदस्य बने रहने को लेकर सुप्रीम कोर्ट (SC) में मुकदमा लड़ रहे हैं। इसपर फैसला जल्द आने की संभावना है। जेडीयू उपेंद्र कुशवाहा को राज्यपाल कोटे की विधान परिषद सीट (MLC Seat) व अपने कोटे से बिहार में मंत्री पद भी दे सकता है। चर्चा तो यह भी है कि कुशवाहा को जेडीयू संसदीय दल का नेता बनाया जाएगा। अब देखना यह है कि कुशवाहा को पार्टी व सरकार में क्‍या भूमिका दी जाती है।

Source : Dainik Jagran

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