पसीना बहाते थे। ईमानदारी से कमाते थे। घर का चूल्हा जलता था। पेट की भूख मिटती थी लेकिन आज मुसीबत से जूझ रहे हैं। कोई मीलों पैदल चल रहा है…कोई बीच में ही टूट रहा है…कोई भूख से लड़ रहा है…कोई सिस्टम से हार रहा है…किसी की नौकरी छूट गई, किसी के सपने टूट गए…कोई रोड पर रोटी मांग रहा है, कोई ठेले पर सब्जी बेच रहा है…जी हां, कोरोना के प्रहार ने मजदूरों को बेजार कर दिया है।

जिंदगी को चौराहे पर खड़ा कर दिया है। इस बार का मजदूर दिवस, बस कैलेंडर की तारीख बन कर रह गया है। सुकलाल यादव सपने लेकर दिल्ली गए थे। मजदूरी करते थे। रोज खा-पीकर तीन-चार सौ रुपये बचा लेते थे। लॉकडाउन की रात ट्रेन में बैठ गए। ट्रेन पटना आकर रुक गई और जिंदगी अटक गई। अब पटना जंक्शन पर मारे-मारे फिर रहे हैं। जक्कनपुर थाने में गुरुवार दोपहर दो बच्चों को लेकर प्रीति देवी पहुंची। पुलिसकर्मी ने कहा, खाना खत्म हो गया। पूछने पर बोली, पति पेंटर-मजदूरी का काम करते थे। अब बच्चों को कहां से खिलाऊं…।

मई दिवस से महरूम प्रवासी मजदूर

राज्य सरकार के अनुसार 1.80 लाख से ज्यादा मजदूर बिहार पहुंच चुके हैं। बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष रामलाल खेतान कहते हैं कि प्रवासी मजदूर अपने प्रदेश लौटने लगे हैं। इन मजदूरों को रोजगार देने के लिए राज्य सरकार को औद्योगिकीकरण तेज करना होगा। तीन महीने में उद्योग लग सकते हैं।

नई राह भी निकाल रहे हैं

जिंदगी की जंग में खुद को बचाये रखने के लिए मजदूर आज भी लड़ रहे हैं। हार कर बैठ जाने के बजाय नई राह भी निकाल रहे हैं। अनिल राम राजधानी के करबिगहिया इलाके में रहते हैं। पहले साइकिल से फेरी लगाकर केक बेजते थे। अब कर्ज लेकर सब्जी बेचने लगे। कहते हैंर्, जिंदा रहना है साहब तो कुछ तो करना ही होगा। रोड पर भीख मांग कर खाने से अच्छा है, ईमानदारी से कुछ कमा कर खाया जाए। केक से 600 रुपये बचते थे, सब्जी बेचकर 150 रुपये भी नहीं बच रहे।

कोरोना महामारी के बढ़ने के बाद लॉकडाउन के पहले छुट्टी पर भेज दिया गया। रेस्टोरेंट और होटल बंद होने वाला था। मालिक ने कहा कि लॉकडाउन खत्म होगा तो फिर वापस आ जाना। पिछले महीने का वेतन मिला है। इस महीने मिलेगा कि नहीं पता नहीं। मालिक कहते हैं कि लॉकडाउन ज्यादा दिनों तक खींचेगा तो मुश्किल होगी। अब कुछ समय में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाएगा।
-लालू महतो, कामगार, रेस्टोरेंट

पांच लोगों का हमारा परिवार है। सब्जी बेचकर गुजारा करते हैं। 10 से 12 सालों से यही काम कर रहे हैं। कभी-कभी तो 200 रुपये का ही दिनभर बेच पाते हैं। हमें राशन भी नि:शुल्क नहीं मिल रहा है। गर्मी के कारण दोपहर में कम बिक्री होती है और शाम होते ही पुलिस के डंडे पड़ने लगते हैं। घर में खाना बहुत मुश्किल से बन पा रहा है। बच्चों की स्थिति खराब है।

Input : Live Hindustan

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