देवता के रुठल मनावल जा सकेला, बाकी पितृ ( स्वर्ग सिधार चुके पूर्वज ) रूठ जइहें त अनर्थ हो जाई.. जी हाँ, सनातन परंपरा में देवता के साथ- साथ पितृ का भी बहुत महत्व है. सनातन सभ्यता में पितृपक्ष का महीना भी इसी पर केंद्रित है. अपने मृत पूर्वजों को जल देने की परंपरा सनातन के संस्कारों का प्रतीक है. इसी माह के दौरान एक पर्व भी है- जीतिया, जिसका शुद्ध रूप है – जीवित्पुत्रिका व्रत..
जीतिया व्रत मूलतः मातायें अपने पुत्र के दीर्घायु होने के लिये करती है, यह व्रत निर्जला होता है. तस्वीर में जो थाली है – वो जीवित्पुत्रिका व्रत के एक दिन पूर्व नहाय- खाय पर व्रती का भोजन है.. इस थाली में बिहार के कई अलग- अलग जनपद में मछली नही होती है, बाकी सारी सामग्री नहाय- खाय में हर जगह खाई जाती है.. हमारे उत्तर बिहार में मरुआ के रोटी, नोनी का साग, झिगनी का सब्ज़ी के साथ मछली खाने की भी परंपरा है. मछली को हमारे इलाक़े में शुभ माना जाता है, पितृपक्ष श्राद्ध कर्म का महीना होता है, इसलिये मछली खाकर शुभ का संकेतात्मक अनुभव किया जाता है.
इस थाली में मरुआ की रोटी है. मरुआ को रग्गी भी कहा जाता है, जो मकई और बाजरा के तरह ही मोटा अनाज होता है.. मातायें मरुआ के आटा का रोटी खाकर जीवितवाहन भगवान से प्राथना करती है कि उनका बेटा भी मरुआ की तरह बरियार हो. नहाए- खाय को उपयुक्त व्यंजन खाने के बाद मातायें अगले पूरे दिन बिना पानी तक पीए उपवास रखती है और जीवितवाहन भगवान का कथा सुनती है.. नहाय- खाय और व्रत के दिन जिन माताओं के सास- ससूर और माता- पिता स्वर्ग सिधार चूके है, वो अपने पूर्वजो को याद कर जल में संकेतात्मक तर्पण करती है और अपने पितृ से आशीर्वाद की मनोकामना करती है.
जीतिया व्रत के रिवाज़ जनपदों एवम परिवारिक परंपरा के अनुसार थोड़े अलग हो सकते है बाकी इस व्रत और पर्व का मूल धेय्य यही है. जीतिया व्रत एक माँ का अपने पुत्र के प्रति स्नेह और ईश्वर से उसके दीर्घायु होने की कामना के लिये किया जाता है. अपने बेटे के प्रति माँ का प्यार अनमोल होता है, सनातन संस्कृति में स्त्रियां अपने पुत्र के लिये यह व्रत रख कर अपने ममता के प्रगाढ़ता का परिचय देती है..