विनायक विजेता-
पटना। एनडीए और खासकर भाजपा के पक्ष में आए लोकसभा चुनाव के अप्रत्याशित परिणामों ने देश को ही नहीं बल्कि संम्पूर्ण विश्व को चौका दिया है। चाहे बिहार के पांच दलों का महागठबंधन हो या यूपी का अखिलेश मायावती गठबंधन। अपनी राजनीतिक स्वार्थ और कुत्सित राजनीतिक मंशा के कारण इन महागठबंधनों ने इन दोनों राज्यों में इतना कीचड़ फैल दिया था कि ‘कमल’ को तो खिलना ही था।
‘कमल’ तो खिलेगा इसकी संभावना तो थी पर बिहार जैसे राज्य में लालू के राजद और महागठबंधन का सूपड़ा साफ हो जाएगा यह किसी ने भी नहीं सोचा था। कांग्रेस ने बिहार में महागठबंधन के छांव तले एक सीट (किशनगंज) हासिल कर किसी तरह अपनी इज्जत तो बचा ली पर राजद सहित महागठबंधन के धुरंधर और दिग्गज राजनेता रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह ‘हम’ के अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, शरद यादव और रालोसपा अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा जैसे चुनावी महारथियों को इस चुनाव में मतदाताओं द्वारा बूरी तरह नकार देने से यह जाहिर हो गया कि बिहार के मतदाता पुराने चुनावी दौर से अब बाहर आ चुके हैं। हालांकि रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदानंद सिंह सरीखे अनुभवी और परिपक्व राजनेता का चुनाव हारना शुभ संकेत नहीं पर गरीब सवर्ण को आरक्षण का राजद द्वारा विरोध का खामियाजा उन्हें भूगतना पड़ा।
अपने मुख्मंत्रित्व काल में जीतन राम मांझाी ने सवर्णों और खासकर भूमिहार जाति के प्रति लगातार जैसे बयान दिए उसका भी खामियाजा मांझाी और राजद को भूगतना पड़ा। इस चुनाव में मतदाताओं ने दल और जाति से उपर उठकर मोदी, भाजपा या एनडीए के पक्ष में वोट नहीं किया बल्कि मतदाताओं ने अपने जिगरे वतन हिन्दुस्तान की अखंडता, अस्मिता, राष्ट्रवाद और देश के स्वाभिमान के पक्ष में मतदान किया। जिस स्वाभिमान और अस्मिता की लड़ाई के सेनानायक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी थे। खासकर बिहार के मतदाताओं ने इस चुनाव में दल, धर्म और जाति से उपर उठकर मतदान किया जिसका परिणाम यह निकला कि बिहार में सामाजिक न्याय का नारा देकर कभी पंद्रह वर्षो तक बिहार पर राज्य करने वाले लालू प्रसाद की पार्टी राजद का इस चुनाव में बिहार में पूर्ण सफाया ही हो गया।
बिहार में राजद के सफाए का एक मुख्य कारण राजद और खासकर राज्यसभा सदस्य व लालू प्रसाद की बड़ी पुत्री मीसा भारती और राजद द्वारा गरीब सवर्णों को मिले 10 प्रतिशत आरक्षण का विरोध एवं किसी भी चुनावों में बिहार में अपनी महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभाने वाली भूमिहार जाति की भरपूर उपेक्षा है। मीसा भारती को पाटलिपुत्र में सवर्ण विरोधी इसी बयान का खमियाजा भूगतना पड़ा जिसकी संभावना ‘खबर मंथन’ ने बीते 16 मई को प्रकाशित अपने पूर्व की एक खबर में कर दी थी। राजद ने न तो पिछले विधानसभा चुनाव में और न ही इस लोकसभा चुनाव में इस जाति के किसी नेता को टिकट दिया। जबकि एनडीए से भाजपा ने गिरीराज सिंह को बेगुसराय से, जदयू ने राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को मुंगेर से और लोजपा ने नवादा से चंदन कुमार को टिकट देकर इस जाति को राजद से मिले जख्म और पीड़ा पर मरहम लगायी। एनडीए के इन तीनों भूमिहार उम्मीदवारों ने भारी मतों से विजयश्री भी हासिल की। राजद के गठन के बाद बीते 22 वर्षों में लालू प्रसाद और उनकी उनकी पार्टी की ऐसी दुर्गती कभी नहीं हुई थी। जनता दल से अलग होने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने 5 जुलाई 1997 को राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया था।
इसके पूर्व 1990 से बिहार की सता पर काबिज लालू प्रसाद ने बिहार में अपनी पहचान सामाजिक न्याय के मसीहा के रुप में स्थापित करते हुए दलित पिछड़ो यादव और मुसलमान समुदाय में अपनी गहरी पैठ बना ली थी। राजद के गइन के बाद 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में राजद को 17 सीटें मिली थीं। 1999 में राजद को सात सीटें मिली पर 2004 के चुनाव में लालू प्रसाद की अगुवाई में राजद ने 22 सीटों पर कब्जा किया। 2009 में इसकी सीटों की संख्या 5 रही जबकि 2014 के चुनाव में राजद मात्र चार सीटों पर सिमट कर रह गया पर सम्पन्न लाकसभा चुनाव में राजद की जो सिथति हुई इसका अंदेशा न तो बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेश्कों को था, न ही मीडिया को और न ही लालू प्रसाद और उनके कुनबे को। पुलवामा में आंतकी हमले के खिलाफ पाकिस्तान में घूसकर किए गए सर्जिकल और एयर स्ट्राईक ने मादी को रातो-रात हीरो बना दिया जिसे विपक्ष पूरी तरह भांप नहीं सका और सिर्फ सर्जिकल, एयर स्ट्राईक और राफेल सौदे पर हुई कथित डील पर सवाल उठाने में ही अपनी शक्ति लगाता रहा।
बिहार के राजनीतिक विश्लेश्क यह मानते हैं कि अगर लालू प्रसाद जेल में न होते तो राजद की बिहार में यह दुर्गति नहीं होती। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के दल हम, रालोसपा सुप्रीमो उपेन्द्र कुशवाहा, अति महत्वाकांक्षी वीआईपी अध्यक्ष मुकेश सहनी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करने ववाले राजद औश्र उसकी कमान संभाले पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इस मुगालत में रहे कि उन्होंने नीतीश कुमार के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के खिलाफ एक जाति विशोष को दरकिनार कर एक सशक्त और मजबूत गठबंधन तैयार कर लिया है पर तेजस्वी यह भूल गए कि बिहार में सवर्ण जाति खासकर भूमिहार जाति की उपेक्षा बिहार की राजनीति में उसी तरह है जैसे ‘बिन गांगो झूमर!’ वाली कहावत। बहरहाल मोदी और भाजपा के पक्ष में उठी सुनामी में कभी मजबूत किले के रुप में खुद को स्थापित करने वाले राजद और उसके शीर्ष नेताओं को आत्मचिंतन की जरुरत है। बिहार में राजद का सबसे मजबूत समीकरण ‘माय’ को ढेर हो जाने के बाद अब राजद, लालू और तेजस्वी को आत्मचिंतन करने की जरुरत है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में अपना हश्र देख राजद को 2020 में होने वाले विधान सभा चुनाव में सवर्णों और खासकर भूमिहार जाति को साथ लेकर चलने की गंभीर मजबूरी होगी और माय के साथ भूमिहार जाति को भी इस जातीय समीकरण से जोड़ना होगा तभी राजद या महागठबंधन एनडीए को चुनौती दे सकती है पर विधानसभा चुनाव में अभी देरी है। यह भी संभावना है कि महागठबंधन में शामिल दल या उसके नेता एक दूसरे पर नाकामी और असफलता का ठीकरा फोड़ महागठबंधन ही ना तोड़ दे। राजनतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि राजद के चिंतन के पूर्व ही राजद और तेजस्वी के नाकामियाओं और उनके चुनावी फार्मूले की उड़ी हवा से नाराज राजद के कई दिग्गज नेता या तो पार्टी छोड़ देंगे या फिर सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लेंगे।
Input : Khabar Manthan