1 जून की रात से इस शहर में मातम है। हर कुछ घंटे में एक बच्चे की मौत हो रही है। एक बच्चे के शव को अभी एंबुलेंस से घर को भेजा जा रही कि दूसरे बच्चे के परिजनों के रोने-बिलखने की आवाज आने लग रही है।

अबतक 120 से ज्यादा बच्चों की जानें जा चुकी हैं। मातम के माहौल के बीच मुजफ्फरपुर के चंद्रहट्टी के लोगों में थोड़ी राहत है। अब सवाल उठता है कि मातम के बीच राहत?

जी हां… मुजफ्फरपुर और उसके आसपास के इलाकों में चमकी बुखार या एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम का कहर हर साल बरपता है। 90 के दशक से शुरू ये सिलसिला हर साल मई-जून में चलता है। बच्चे मरते हैं और फिर जिंदगी लोगों को अपने ढर्रे पर चलाने लगती है। लेकिन, चंद्रहट्टी इस बार इससे बच गया। इसके पीछे कुछ लोगों की अथक मेहनत है।

मुजफ्फरपुर शहर से करीब 10 किलोमीटर दूर बसा है चंद्रहट्टी गांव। यह कुढ़हनी ब्लॉक के अंतर्गत आता है। एक जून को जैसे ही बच्चों की मौत का सिलसिला शुरू हुआ, इसकी खबर गांव तक भी पहुंची। ऐसे में गांव के कुछ जागरुक लोग सतर्क हो गए। उन्होंने चमकी बुखार से लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया और प्रयास शुरू कर दिया। इसका नतीजा ये रहा कि जिस गांव में हर साल लोग इस बीमारी से शोक में डूबते थे, वह गांव इस बार राहत की सांस ले रहा है।

दरअसल, गांव के एक शख्स (वह अपना नाम जाहिर करना नहीं चाहते हैं) ने एक साथी का फेसबुक पोस्ट पढ़ा। इसमें लिखा था कि इस मुद्दे पर सरकार को दोष देने से बेहतर है कि फौरी तौर पर लोगों को ही इस दिशा में काम करना चाहिए। पोस्ट की ‘इस लाइन’ से ही प्रभावित होकर उन्होंने काम करने का निर्णय लिया। उनका मानना है कि बिहार, यूपी और झारखंड के ग्रामीण क्षेत्र में अभी भी स्वास्थ्य व्यवस्था क्वैक्स डॉक्टरों (जिन्हें झोलाछाप डॉक्टर कहते हैं) पर निर्भर है। वह गांवों में फैले हुए हैं और उनका एक नेटवर्क है। छोटी बीमारी जैसे पेट खराब होने, सर्दी होने या बुखार आने जैसी चीजों के लिए लोग पड़ोस के क्वेक्स डॉक्टरों के पास ही जाते हैं।

पहला चरण
ऐसे में उन्होंने सोचा कि क्वैक्स (झोला छाप डॉक्टरों) को ट्रेंड कर दिया जाए तो वे जानकारी को शहरी गांव के लोवर लेवल के लोगों तक बेहतर तरीके से पहुंचा सकते हैं। हमने बिहार सरकार के एसओपी को देखा। इसमें बीमारी को लेकर 10 पेज का इंस्ट्रक्शन है। जिसमें लिखा है कि बीमारी होने पर क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही अन्य जानकारियां भी हैं। ये सभी हिंदी में है। मैंने इसका प्रिंटआउट अपने प्रिंटर से निकाला और छोटी-छोटी टोली बनाकर आसपास के चार-पांच पंचायतों में उन्हें भेज दिया।

वह बताते हैं कि उनके पास एक लिस्ट है, जिसमें आसपास के गांव के तीन-चार अच्छे क्वैक्स का नाम दिया है। हमने उनसे बात की और उन्हें भी वह लिटरेचर दे दिया। ताकी उनके पास जो ग्रामीण पहुंचे तो वह उन्हें भी यह जानकारी दे दें। यह उनका पहले चरण का प्रयास था।

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यहां हमने सवाल किया कि आपने ये पहले चरण का प्रयास कब शुरू किया। इसपर उनका कहना है कि हमें अनुमान था कि पिछले साल की तरह इस बार भी मानसून समय पर आएगा और जिसकी वजह से बीमारी का प्रकोप नहीं फैलेगा। बता दें कि ऐसा माना जा रहा है कि मानसून में देरी की वजह से भी इस बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है। इस बार अनुमान भी लगाया जा रहा था कि मानसून समय पर आएगा।

उन्होंने आगे कहा कि जैसे ही चमकी बुखार के इस बार भी फैलने की खबर आई, हमने पहले चरण का काम शुरू कर दिया। तारीख में बात करें तो एक जून के बाद हमने काम शुरू किया।

दूसरा चरण

जागरूकता अभियान के लिए उन्होंने गाड़ी घुमाई। इसमें उन लोगों ने बीमारी को लेकर जागरूकता फैलाने का काम शुरू किया। यहां भी हमने थोड़ा सा दिमाग लगाया। पहले गाड़ियां एनाउंस करते हुए आगे बढ़ती जाती थीं, जिससे सभी लोगों तक बात नहीं पहुंच पाती थी। चूंकि ऐसा देखा जा रहा है कि ये बीमारी गरीब तबकों में ज्यादा फैल रही है। खास तौर पर ऐसे इलाके में जहां आर्थिक रूप से कमजोर लोग रहते हैं और गंदगी फैली हुई रहती है, वहां ये बीमारी तेजी से फैल रही है। ऐसे में गाड़ी को उन बस्तियों में रोककर जानकारी को तीन-चार बार दोहरा दिया गया, जिससे उन्हें अच्छी तरह से इसकी जानकारी मिल जाए।

यहां मैंने उनसे सवाल किया कि ये गाड़ी सरकार की तरफ से चलवाई जा रही थी? तो उन्होंने दिलचस्प जवाब दिया:-

उन्होंने कहा, देखिए ऐसा मत समझिए कि हर चीज के लिए पैसे की जरूरत होती है। इन चीजों में बहुत खर्च नहीं होता है। किसी काम को बेवजह का फैशन बना लेने पर खर्च होता है। हमने ऑटो वाले से बात की तो उन्होंने कहा कि सिर्फ पेट्रोल डलवा दीजिए। साउंड सेट वाले से बात की तो उसने पूछा, किस काम के लिए चाहिए? हमने बताया तो उसने कहा कि इसमें पैसा क्या लेंगे। आप लोग समाज के लिए काम कर रहे हैं। बुकलेट भी हम लोगों ने अपने पास से पैसे खर्च कर छपवा दिए। ऐसे हर चीज की व्यवस्था हमने अपने से कर ली। यही बात मैं मुख्य रूप से कह रहा हूं कि कम पैसे में ही हम अपने संसाधनों से ही समाज में इस तरह का काम कर सकते हैं।

वह आगे कहते हैं, हमने गाड़ी को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया और उनसे लोकल लेवल पर बात की। बिल्कुल उनकी भाषा (बज्जिका भाषा) में, जिससे वह ज्यादा से ज्यादा कनेक्ट हो सकें। उन्हें ये भी बताया गया कि लक्षण दिखने पर पहले जिला अस्पताल में न जाएं। पहले ब्लॉक के अस्पताल में जाएं। इससे शहर के अस्पताल में लगने वाली भीड़ भी कम हो जाएगी।

वह आगे कहते हैं, गांव के लोग शुगर लेवल कम हो जाना या ग्लुकोनडी पिलाना नहीं समझ पाते। उन्हें लगता कि ये कोई बड़ी बात हो रही है। या फिर वे किसी बड़ी बीमारी की चपेट में आ गए हैं। ऐसे में हम लोगों ने उन्हें बताया कि ‘चीनी का घोल’ बनाकर बच्चों को पिलाएं। ये बात उन्हें अच्छी तरह से समझ में आई। हमने उन्हें कहा कि बच्चों को खुले स्थान पर रखिए। साफ-सुधरा रखिए। ये बातें उन्हें बेहतर तरीके से समझ में आई।

बुकलेट को लेकर वह कहते हैं कि बिहार सरकार ने साल 2014-15 में ही इसे लेकर एक प्रोजेक्ट तैयार किया था। उसी के अंदर का ये 10 पन्ने का मैटर है। हां, हम लोगों ने एक अलग से पम्फलेट तैयार जरूर किया। इसमें एक-एक लाइन का स्ट्रक्शन लिखा। उन्हें आसान भाषा में चीजें समझाने की कोशिश की। इसमें लक्षण, परिजनों को क्या करना चाहिए और बचाव कैसे करें इसपर जोर दिया गया।

उनका मानना है कि ये प्रयास अगले साल ही नहीं हर साल काम में आएगा। हम गर्मी की शुरुआत से ही इसका प्रचार-प्रसार करने का प्रयास करेंगे। हमें मौत का इंतजार नहीं करना चाहिए, पहले से ही जागरूता फैला देनी चाहिए। इससे हमें जरूर फायदा मिलेगा।

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नोट: गांव में काम करने वाले शख्स ने अपना नाम या अपने साथियों का नाम देने से इनकार कर दिया। उनका मानना है कि चार-पांच लोगों का नाम दे-देने के बाद ऐसे में बहुत सारे लोग हैं जो पर्दे के पीछे से काम कर रहे हैं तो उनके मन में निराशा की भावना आ सकती है। वे सोचेंगे कि देखिए मेरा नाम नहीं आया। इससे अच्छा है कि इन चीजों से बचा जाए। किसी का नाम आए उससे ज्यादा जरूरी है कि चीजें बेहतर हों।

Input : India Times

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