राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में तिरहुत के सपूतों का भी गाथा जुड़ेगी। देश 1857 में अंग्रेजों के खि’लाफ वि’द्रोह में तिरहुत के सपूतों के योगदान को याद करेंगे । देश जान सकेगा कि मई 1857 में मेरठ से शुरू हुए विद्रो’ह से पहले ही तिरहुत के किसानों ने वि’द्रोह का बिगुल फूं’क 1855 में ही मुजफ्फरपुर जे’ल ब्रेक को अं’जाम देने की ना’काम कोशिश की थी।

इस कोशिश में शामिल वारिस अली को दूसरे बहाने से 1857 में फांसी दे दी गई, तो बड़का गांव सहित तत्कालीन तिरहुत जिले के 27 सपूतों को कालापानी की सजा दे मार डाला गया। इतिहास के पन्नों में अब तक तिरहुत के प्रथम शहीद के रूप में शहीद खुदीराम बोस को ही जाना जाता था, जिन्हें अंग्रेज अधिकारी पर बम फेंकने के आरोप में 1911 में फांसी दी गई थी। तिरहुत के ये रणबांकूरे 1857 के विद्रोह के हीरो रहे बहादुर साह जफर, झांसी की रानी, तात्या टोपे, बेगम हजरत महल व वीरकुंवर सिंह के समकालीन थे। देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों के खिलाफ भड़के विद्रोह की आग के पीछे किसी न किसी राजा व जरवाड़े की शह प्राप्त थी। लेकिन तिरहुत इससे बिल्कुल अलग था। तिरहुत में नीलहों व अंग्रेज अफसर से परेशान किसानों ने अपने बूते ही विद्रोह की कमान संभाली थी और उन्हें किसी राजे रजवाड़े का सरंक्षण नहीं मिला था। तिरहुत के इन बलिदानों का इतिहास अदालत की फाइलों में ही दबकर रह जाती। लेकिन अपने पुरखों के बलिदान को उजागर करने के लिए बड़का गांव के जयप्रकाश नारायण आजाद छटपटा रहे थे। वर्ष 2012 में उन्होंने अदालत से उस कागजात की नकल हासिल कर ली, जिसमें जमादार वारिस अली को फांसी की सजा सुनायी गई थी और बड़कागांव सहित तिरहुत के 27 सपूतों को कालापानी की सजा दी गई थी। कालापानी की सजा पाने वाले ये रणबांकूरे अंडमान निकोबार द्वीप समूह की जेल में ही दम तोड़ गए। उनमें से किसी की लाश तक वापस घर नहीं आ पाई। इसके बाद सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह, न्यू इंडिया फाउंडेशन ने इन वीर सपूतों को इतिहास में जगह दिलाने की कोशिश शुरू की। अंतत: डीएम धर्मेंद्र सिंह ने छह जनवरी 2017 को गृह विभाग को अनुशंसा भेज दी कि वारिस अली को शहीद का दर्जा दिया जाए और कांटी के बड़का गांव व तिरहुत के कालापानी की सजा पाने वाले कुल 27 शहीदों का नाम सेल्यूलर जेल की कैदी की सूची में शामिल करते हुए स्वतंत्रता सेनानी माना जाए।

इसी के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ जाएगा। यह है शहीदों का परिचय जमादार वारिस अली पता नामालूम, तिरहुत जिले के बड़का गांव निवासी रामदीन शाही, केदई शाही, छद्दु शाही कृष्णा शाही नथु शाही छटठु शाही हंसराज शाही, शोभा शाही, बीजनाथ तिवारी, तिलक शाही, पुनदेक शाही, कीर्ति शाही, छतरधारी शाही, दर्शन शाही, रौशन शाही, पलक तिवारी, मो. शेख कुर्बान अली पता नामालूम,
वहीं ग्राम धरमपुर तरियानी परगना के भागीरथ जाति ग्वाला, राधनी राय ग्वाला, राज गोपाल जाति ग्वाला,, तुफानी ग्वाला रणजीत ग्वाला, भागीरथ ग्वाला संतोषी ग्वाला, खीरासी खान पैठान साहेबगंजा बन्टूखी ग्वाला व रामटहल ग्वाला,

विशेषज्ञों की नजर में तिरहुत में स्वाधीनता संग्राम

कैशर शमीम

(ट्रस्टी न्यू इंडिया फाउंडेशन व सेंट्रल वक्फ काउंसिल के पूर्व सचिव)

इन गुमनाम शहीदों को राष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए संकल्पित मो. कैशर शमीम के अनुसार उपजाऊ भूमि व पानी की पर्याप्त मौजूदगी के कारण अंग्रेज फ्रांसीसी और अन्य यूरोपीय कंपनियां 17वीं सदी में ही तिरहुत की तरफ आकषिंत हो गईं थी। क्योंकि यहां कलमी शोरह देश भर में सबसे अच्छा था और लागत कम आती थी। बाद में अफीम और फिर नील भी उनके लिए फायदे का स्रोत साबित हुआ। 1833 में जब अंग्रेजी कानून ने व्यापार पर एकाधिकार खत्म कर दिया, तो निजी कारोबार के लिए कई अंग्रेजों ने पूंजी लगानी शुरू कर दी। 1857 में नील की कोठियों में कितनी पूंजी लगी थी, इसका अंदाजा दानापुर के कमांडर ब्रिगेडियर क्रिस्टी के इस पत्र से होता है जो उसने पटना के कमी नर को लिखा था। उसने कहा था कि ‘ तिरहुत और चंपारण जिले नील के उन कारखानों से भरे पड़े हैं, जो डाई की पैदावार शुरू ही करने वाले हैं। इन दो जिलों में इतनी पूंजी लगी है, जितनी देश के किसी हिस्से में नहीं लगी है। इसलिए अगर विद्रोहियों की मौजूदगी की वजह से इन दो जिलों में अराजगता फैलती है तो इसके परिणाम बहुत भयावह होंगे। कैशर शमीम तिरहुत के संग्राम के संबंध में बताते हैं‘ 1855 में जहां संथालियों ने शोषण और अत्याचार के खिलाफ विद्रेाह का झंडा बुलंद किया, उसी साल शाह आबाद व मुजफ्फरपुर की जेलों में एक ही दिन, कैदी लड़ने के लिए उठ खड़े हुए थे। बजाहिर यह हुआ कि जब कैदियों से धातु का लोटा और बर्तन छीनकर उन्हें मिट्टी का बरतन पकड़ाया तो वे नाराज हो गए। कैदियों ने मुजफ्फरपुर जेल में विद्रोह कर दिया और जेल के बाहर 12 हजार किसानों ने जेल को घेर लिया। इस विद्रोह को दबाने के लिए बाहर से फौज बुलाई गई और अंग्रेज अपने मंसूबे में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने वारिस अली समेत बड़का गांव के किसानों को चिन्हित किया और सजा दिलायी।

सच्चिदानंद चौधरी

महासचिव भारतीय ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक शोध प्रतिष्ठान, बिहार पटना 

सच्चिदानंद चौधरी को बड़कागांव पंचायत से शहीदों का इतिहास लिखने के लिए अधिकृत किया गया है। इसके लिए पंचायत ने बजाप्ता एक प्रस्ताव भी पास कर रखा है। श्री चौधरी बताते हैं ‘1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हो चुकी थी। बड़का गांव के रणबांकुरे भी इसमें अपना योगदान चाहते थे। इन युवकों ने बड़का गांव में स्थापित नीलहा कोठी पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों ने स्थानीय मुखबीरों की सांठगांठ और मुजफ्फरपुर के थाना प्रभारी दमड़ी लाल के प्रतिवेदन के आधार पर एएल डैम्पीयर की अदालत में कंपनी सरकार एवं बूटन साह बनाम दर्शन शाही एवं अन्य का मामला दायर कर दिया। मामले की सुनवाई की खानापूर्ति कर 18 सितम्बर 1857 को इन वीर सपूतों को कालापानी की सजा दे दी गई और उनकी संपत्ति भी जब्त कर ली गई। ये तिरहुत के पहले शहीद हुए। यानी खुदीराम बोस से भी पहले, जिन्हें 20वी सदी में फांसी की सजा दी गई। श्री चौधरी बताते हैं कि इतिहास का यह पन्न अनदेखा ही रह जाता, यदि शहीद के वंशज जयप्रकाश नारायण आजाद ने कोर्ट से फैसले की कॉपी नहीं निकाली होती। स्व. आजाद की एक और खूबी है। उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर गांव में एक पुस्तकाल की नींव रखी और उस पुस्तकाल में 1942 से लेकर 26 फरवरी 2012 तक हर दिन का समाचार पत्र सुरक्षित है। उस दिन का भी, जब स्वतंत्र भारत का उदय हुआ था।

बड़का गांव का नाम लेना भी मानते थे अशुभ जिले को जानने वाले जानते हैं कि आज भी लोग सुबह सबेरे बड़का गांव का नाम नहीं लेते। माना जाता है कि सुबह गांव का नाम लेने से दिन भर खाना नसीब नहीं होता और उसपर मुसीबते टूटती हैं। इस गांव के बारे में यह धारणा यूं ही नहीं बनी। दरअसल पश्चिम बंगाल से शुरू हुए स्वतंत्रता आंदोलन की आग तिहुत में पारू होते हुए बड़का गांव ही पहुंची, जहां नीलहों, अंग्रेज व किसानों में पहले से ही रस्साकशी चल रही थी। अंग्रेजों ने भारतीय किसानों को सबक सिखाने के लिए गांव से नौ किलोमीटर दूर फसियरवा चौक पर कई लोगों को सरेआज फांसी दी थी, ताकि भय का माहौल बनाया जा सके। तब बड़का गांव से संबंध रखने वले हर व्यक्ति को अंग्रेज संदेह की निगाह से देखते थे। उस गांव का नाम लेने वाले तक को कोपभाजन का शिकार होना पड़ता था। यही कारण रहा कि लोग बड़का गांव का नाम लेने से भी कतराते थे। बाद में आंदोलनकारियों ने बड़का गांव का नाम पछियारी गांव ही रख दिया। अब जब किसी को बड़का गांव की बात करनी होती थी, तो वह उसे पछियारी गांव ही बोला करता था, ताकि किसी को संदेह भी न हो, और बात भी हो जाये। यह परिपाटी आज भी जारी है। लोग बड़का गांव का नाम सुबह में नहीं लेते !

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