1897 में, जिन दिनों महारानी विक्टोरिया के राज का स्वर्ण समारोह मनाया जा रहा था, ओडिशा के एक छोटे शहर में भारत का एक महान स्वतंत्रता सेनानी जन्म ले रहा था. इसे 50 साल बाद भारत से ब्रिटिश राज की जड़ें उखाड़ फेंकनी थी. सुभाष चंद्र बोस के पिता जानकीनाथ बोस बंगाल के 24 परगना जिले के एक छोटे से गांव में रहते थे, जो वकालत करने कटक आ गए थे, लेकिन सुभाष चंद्र बोस के जन्म तक वे सरकारी वकील बन गए थे और बाद में नगरपालिका के पहले गैर-सरकारी अध्यक्ष भी बने.
बेटे की पहली गिरफ्तारी पर गर्व से फूल गया पिता का सीना
सुभाष की मां प्रभावती हाटखोला, उत्तरी कलकत्ता के एक परंपरावादी दत्त परिवार से थीं. वे आठ बेटों और छ बेटियों की जननी थी जिनमें से सुभाष नौवीं संतान थे. देश की स्वतंत्रता के लिए हमेशा जान हथेली पर लेकर चलने वाले सुभाष और उनके भाई शरत थे. स्वतंत्रता की लड़ाई में कई उतार-चढ़ाव और संघर्ष आए लेकिन सुभाष के माता-पिता ने हमेशा धैर्य से काम लिया. दिसंबर 1921 में जब पहली बार सुभाष की गिरफ्तारी की खबर मिली तो पिता जानकीनाथ ने बड़े बेटे शरत को पत्र लिखकर कहा- ‘सुभाष पर गर्व है और तुम सब पर भी.’ मां, महात्मा गांधी के विचारों को मानती थीं तो इसलिए उन्हें सुभाष की गिरफ्तारी की बहुत पहले से आशंका थी. उनका मानना था कि महात्मा गांधी के सिद्धांतों से ही देश को स्वराज मिलेगा.
सुभाष चंद्र बोस और शिक्षा
सुभाष चंद्र बोस की शुरुआती शिक्षा अंग्रेजों की तरह कटक के प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में हुई थी. अंग्रेजों के तौर-तरीकों पर चलने वाला यह स्कूल बाकी भारतीय स्कूलों के मुकाबले बेहतर था. यहां अनुशासन, व्यवहार, रख-रखाव और कामकाज में अपना अलग फायदा मिलता था. पढ़ाई में अव्वल लेकिन खेल-कूद में पीछे रह जाते थे. यहां उन्होंने साल 1909 तक पढ़ाई की और इसके बाद रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया, जहां भारतीयता परिवेश के बीच अपने सोच-विचार और नया आत्मविश्वास हासिल किया. मैट्रिक परीक्षा में दूसरा स्थान प्राप्त किया. आगे की पढ़ाई कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित प्रेजीडेंसी कॉलेज से हुई. साल 1913 में कटक छोड़ते हुए सुभाष को उतनी समझ नहीं थी लेकिन कलकत्ता में उन्होंने समाज सेवा, राष्ट्रीय पुनर्निमाण की समझ हासिल की.
जुलाई, 1917 में बोस ने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया और 1919 में दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी में ऑनर्स पास किया. मेरिट लिस्ट में उनका स्थान दूसरा था. इसके बाद उन्होंने प्रयोगात्मक मनोविज्ञान से एम.ए. में दाखिला लिया. इसके बाद, पिता की सलाह पर इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी के लिए इंग्लैंड चले गए और वहां से कैंब्रिज. 1920 में इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा की मेरिट लिस्ट में उनका चौथा स्थान था लेकिन उसी साल अगस्त में उन्होंने आईसीएस छोड़ दिया.
आजाद हिंद फौज
एक कट्टरपंथी राष्ट्रवादी, समाजवादी झुकाव के साथ, बोस ने गांधीजी के अहिंसा के आदर्श को नहीं माना. हालांकि उन्होंने उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में सम्मान दिया. जनवरी 1941 में, उन्होंने गुप्त रूप से अपना कलकत्ता घर छोड़ दिया, जर्मनी के रास्ते सिंगापुर चले गए, और आजाद हिंद फौज या भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) का नेतृत्व किया.
पंजाब के जनरल मोहन सिंह ने 15 दिसंबर 1941 को आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी और 21 अक्टूबर 1943 को इसकी कमान नेताजी सुभाष चंद्र बोस को सौंपी थी. शुरुआत में इस फौज में 16000 सैनिक थे जो बाद में 80000 से ज्यादा तक हुई. नेताजी ने जब आजाद हिंद फौज की कमान संभाली, उस समय इसमें 45,000 सैनिक शामिल थे, जो युद्ध-बंदियों के साथ-साथ दक्षिण पूर्वी एशिया के अलग-अलग देशों में रह रहे थे. साल 1944 में ही बोस अंडमान गए जिसपर जापानियों का कब्जा था और वहां उन्होंने भारत का झंडा फहराया.
भारत को ब्रिटिश राज से आजाद करने के लिए, 1944 में, INA ने इंफाल और कोहिमा के रास्ते से भारत में आने की कोशिश की लेकिन असफल रहे. इस अभियान में INA के सदस्यों को कैद कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया. लेकिन इस घटना ने भी देशवासियों में जोश भरने के काम किया, लोग घरों से निकले और आजाद हिंद फौज के सैनिकों की रिहाई और उनपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया.
आजाद हिंद फौज का ‘दिल्ली चलो’ का नारा और सलाम ‘जय हिंद’ सभी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्त्रोत था. भारतीय महिलाओं ने भी देश की आजादी के लिए कंधे से कंधा मिलाकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. देश में पहली बार आजाद हिंद फौज में एक महिला रेजिमेंट का गठन किया गया था जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन के हाथों में थी. इस रेजिमेंट को रानी झांसी रेजिमेंट के नाम से भी जाना गया. बता दें कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 18 अगस्त, 1944 को एक विमान दुर्घटना में जलने के बाद ताइवान में एक हॉस्पिटल में मृत्यु हो गई थी.
Source : Aaj Tak