बिहार के विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति को लेकर नीतीश सरकार और राज्यपाल 13 साल बाद फिर आमने-सामने हो गए हैं। शिक्षा विभाग और राजभवन द्वारा कुलपति की नियुक्ति के लिए अलग-अलग विज्ञापन निकाले हैं। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि कुलपति की नियुक्ति कौन करेगा? साल 2010 में भी तत्कालीन राज्यपाल देवानंद कोंवर के समय भी इसी तरह का विवाद उठा था। तब मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया था। 2013 में शीर्ष अदालत ने इस विवाद को खत्म करते हुए कुलपतियों की नियुक्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट किया था।

दरअसल, राजभवन की ओर से विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी किए हैं, जिनके लिए आवेदन की अंतिम तारीख 24 से 26 अगस्त है। इससे ठीक पहले शिक्षा विभाग ने भी अलग से ऐसे ही विज्ञापन जारी किए हैं। विभाग के सचिव बैद्यनाथ यादव के पास आवेदन जमा करने की अंतिम तिथि अब 13 सितंबर है। 3-5 नामों के पैनल का चयन सर्च कमिटी द्वारा एक सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से किया जाएगा।

शिक्षा विभाग का विज्ञापन ऐसे समय आया है जब कई उम्मीदवार पहले ही राजभवन के विज्ञापन के लिए आवेदन कर चुके हैं और 6 विश्वविद्यालयों में वीसी के पद को भरने के लिए स्क्रीनिंग की प्रक्रिया शुरू होने वाली थी। कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर राज्य सरकार और राजभवन के बीच लंबी खींचतान के बाद 2013 में सुप्रीम कोर्ट प्रक्रिया निर्धारित की थी। इसके अनुसार संभावित शॉर्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों के साथ बातचीत के बाद सर्च कमिटी द्वारा हर विश्वविद्यालय के लिए तीन से पांच नामों का पैनल प्रस्तुत करती है। ये नाम मुख्यमंत्री और राज्यपाल को विमर्श के लिए भेजे जाते हैं। राज्यपाल विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी हैं। सर्च कमिटी का गठन राजभवन करता है।

शिक्षा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अब, विभाग भी अभ्यास शुरू कर रहा है। राज्य सरकार द्वारा सर्च कमिटी का गठन किया जाएगा और बाद में राजभवन की भूमिका को कम करने के लिए मुख्यमंत्री के परामर्श से कुलपतियों के चयन के लिए नामों का पैनल कुलाधिपति यानी राज्यपाल को भेजा जाएगा। राजभवन के सूत्रों के अनुसार, कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार कुलाधिपति के पास है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित प्रक्रिया के आधार पर ही नियुक्ति की जाएगी।

शिक्षा विभाग के राजभवन के आदेश पर सवाल

राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर ने हाल ही में शिक्षा विभाग के एक विश्वविद्यालय के कुलपति और प्रति-कुलपति के वेतन को रोकने और उनके बैंक खातों को फ्रीज करने के आदेश को “मनमाना” और “विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर हमला” करार दिया था। राजभवन ने इसे वापस लेने का निर्देश दिया। इसके बाद शिक्षा विभाग ने इस पर सवाल उठाया है।

विभाग के सचिव बैद्यनाथ यादव के पत्र में कहा गया है, “विभाग अपने पहले के आदेशों को वापस लेने में असमर्थ है और विश्वविद्यालयों पर अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिए बाध्य है।” “कृपया बताएं कि बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम, 1976 की किस धारा के तहत ‘स्वायत्तता’ को परिभाषित किया गया है और विश्वविद्यालयों को ‘स्वायत्त’ बनाया गया है। इसके अलावा, जब राज्य सरकार विश्वविद्यालयों को हजारों करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान करती है, तो वह तथाकथित ‘स्वायत्तता’ की आड़ में विश्वविद्यालयों में अराजकता की अनुमति नहीं दे सकती।”

सचिव के पत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य सरकार विश्वविद्यालयों को सालाना 4000 करोड़ रुपये का अनुदान देती है और इसलिए, विभाग को विश्वविद्यालयों से जवाबदेही मांगने का अधिकार है कि करदाताओं का पैसा कैसे और कहां खर्च किया जाता है। मौजूदा मामले में बीआरए बिहार विश्वविद्यालय (मुजफ्फरपुर) बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम, 1976 की धारा 4 (2) के तहत अनिवार्य परीक्षा आयोजित करने के अपने मौलिक दायित्व में चूक गया। इसके अलावा, विश्वविद्यालय सभी विभागों, कॉलेजों का निरीक्षण करने के अपने प्राथमिक दायित्व में चूका है। राज्य सरकार न केवल करदाताओं बल्कि छात्रों और उनके अभिभावकों के प्रति भी जिम्मेदार और जवाबदेह है। इसलिए जब कोई विश्वविद्यालय अपने प्राथमिक उद्देश्य में विफल रहता है, तो राज्य सरकार हस्तक्षेप करने, उससे रिपोर्ट मांगने और बैठकें बुलाने के लिए बाध्य है।

पहली बार नहीं हुआ विवाद

बिहार में उच्च शिक्षा एक जटिल मुद्दा बना हुआ है। विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण को लेकर सरकार और कुलाधिपति अक्सर आमने-सामने रहते हैं। पिछले साल, कुछ कुलपतियों को लेकर विवाद और तत्कालीन मगध विश्वविद्यालय के कुलपति राजेंद्र प्रसाद पर राज्य विजिलेंस द्वारा छापे के कारण सत्ता संघर्ष हुआ था। राजभवन ने इसके खिलाफ सरकार को लिखा था और इसे “स्वायत्तता का उल्लंघन” बताया था। एक समय तो स्थिति इतनी बिगड़ गई थी कि शिक्षा मंत्री राजभवन में कुलपतियों को सम्मानित करने के लिए आयोजित बैठक में भी शामिल नहीं हुए थे। सरकार ने विश्वविद्यालयों को अपने नियंत्रण में लेने के लिए एक विधेयक लाने की भी कोशिश की, लेकिन उसे रोक दिया गया। बाद में सीएम को मेडिकल, इंजीनियरिंग और खेल के लिए तीन नए विश्वविद्यालयों का चांसलर बनाया गया।

वीसी की नियुक्ति में हो रही देरी

बिहार में कई विश्वविद्यालय एक बार फिर बिना वीसी के हो जाएंगे। क्योंकि वर्तमान कुलपति अपना कार्यकाल अगलने महीने पूरा कर लेंगे और उनके उत्तराधिकारियों के लिए प्रक्रिया फिलहाल पूरी होने की संभावना नहीं है। पटना स्थित आर्यभट्ट नॉलेज यूनिवर्सिटी (एकेयू) के कुलपति (वीसी) की तलाश तीन साल से अधिक समय से चल रही है। पटना विश्वविद्यालय सहित छह और विश्वविद्यालयों के वीसी का कार्यकाल 19 सितंबर के बाद समाप्त हो जाएगा। बीआरए बिहार विश्वविद्यालय मार्च से वीकेएसयू विश्वविद्यालय, आरा के शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी के अतिरिक्त प्रभार में कार्य कर रहा है। बिहार में वीसी की नियुक्ति तीन साल के लिए की जाती है। राज्य के 6 विश्वविद्यालयों में सितंबर 2020 में वीसी की नियुक्तियां हुई थीं। उनकी नियुक्ति के लिए विज्ञापन मार्च 2019 में ही जारी कर दिए गए थे और इस प्रक्रिया को पूरा करने में छह महीने लग गए थे।

Source : Kinemaster

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Pooja

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