116 वर्षों बाद, मुजफ्फरपुर को शहीद खुदीराम बोस का ऐतिहासिक डेथ वारंट प्राप्त हुआ है, जिसे मुजफ्फरपुर सिविल कोर्ट की गैलरी में प्रदर्शित किया गया है। यह दस्तावेज़ शहीद खुदीराम बोस को फांसी की सजा देने वाले मुजफ्फरपुर के तत्कालीन अपर सत्र न्यायाधीश एच डब्सू कॉर्नडफ़ की अदालत द्वारा जारी किया गया था। जिला एवं सत्र न्यायाधीश मनोज कुमार सिंह की पहल पर कोलकाता हाईकोर्ट से इस महत्वपूर्ण दस्तावेज की प्रति मंगवाई गई, जो मुजफ्फरपुर की ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा बन गई है।

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मुजफ्फरपुर सिविल कोर्ट, जो वर्ष 2025 में अपनी स्थापना का 150वां वर्ष मना रहा है, इस अवसर को यादगार बनाने के लिए शहीद बोस के डेथ वारंट की प्रति को यहाँ लाया गया। इस दस्तावेज़ को कोलकाता हाईकोर्ट ने 13 जून 1908 को मुजफ्फरपुर की अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए कंफर्म किया था।

खुदीराम बोस पर अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड पर हमले का आरोप था, जिसके लिए उन्हें मुजफ्फरपुर की अदालत में मुकदमे का सामना करना पड़ा। जब उन्हें अदालत में लाया जाता था, तो सड़क के दोनों ओर खड़े लोग ‘जिंदाबाद’ और ‘वंदे मातरम’ के नारों से उनका स्वागत करते थे। 13 जून 1908 को अदालत ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई, और 11 अगस्त 1908 को, सुबह 6 बजे, 18 साल, 8 महीने और 8 दिन की आयु में उन्हें फांसी दी गई। यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई।

खुदीराम बोस के बलिदान ने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। उनकी फांसी ने देशभर में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध की लहर पैदा कर दी। उनकी शहादत ने युवाओं को जागरूक किया और स्वतंत्रता संग्राम की आग को और प्रज्वलित किया, जिसके परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।

Input : Dainik Bhaskar

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