कहते हैं कि 1925 में पैदा हुए सम्प्रदा बाबू जब पटना यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद खेती करने जहानाबाद के अपने गांव आये तब गांव के लोग पढ़े लिखे नौजवान को खेती करता देख कुछ ऐसा ही तंज कसते थे। पता नहीं कितनी सच झूठ है ये बातें। लेकिन बिहार में आम जुबान पर संप्रदा सिंह को लेकर ऐसे किस्से हैं।
खैर 94 वर्षीय संप्रदा सिंह का देहावसान एक अरबपति उद्योगपति की मौत मात्र नहीं है। कायदे से यह एक प्रेरणापुंज का बुझना है जो बिहार जैसे पलायनवादी राज्य में मजदूरों को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करने वाले उदाहरण थे। हालांकि उनका एल्केम तो रहेगा ही और यह विषम परिस्थितियों में खुद को बुलंद करने के लिए प्रेरणा भी देगा।
दशकों पहले बिहार से बाहर जाकर उद्योग जमाने वाले संप्रदा सिंह अगर आज याद किए जा रहे हैं तो यह उनका अपनी जड़ों से जुड़ाव के कारण ही है। देश के 50 सबसे अमीरों में एक और शीर्ष सफलता के बाद भी वे बिहार से नाता बनाये रहे। हाँ यह जरूर बिहार की सरकारों का दुर्भाग्य रहा कि वह ऐसे लोगों के लिए बिहार में प्रतिकूल माहौल आज तक नहीं बना सकी जिससे ये बड़े उद्योगपति बिहार को संवार सके।
वैसे आज ही मित्र अभिषेक ने लिखा है, जब मगध की धरती रक्तरंजित थी उस दौर में जिसने भी काम की इच्छा दिखाई उनको सम्प्रदा बाबु के यहां काम मिला। उनकी सैलरी और प्रमोशन में बायोटेक्नोलॉजी और बी फार्मा कभी आड़े नहीं आया। आज भी प्रोडक्शन से लेकर मार्केटिंग में लाख रूपए पाने वाले को मैं जानता हूँ।
जब रैनबैक्सी जैसी फार्मा कंपनी ने FDA के मार से थक हार कर अपना बिजनेस समेट लिया था वो उस वक्त के एक अखबार के संपादकीय पृष्ठ के एक लेख में मैंने पढ़ा था ” जो बांटते थे दवा- ए- दर्दे दिल,वो खोमचे उठा कर निकल लिए “। लेकिन एक शक्स जो बिना स्वदेशी का ढोल पीटे मल्टीनैशनल फार्मा कंपनियों से टकराकर भारतीयों को क्वालिटी दवा और देश को विदेशी मुद्रा देते रहे वो आज रुखसत हो गए।
और मित्र रंजन ऋतुराज तो अनोखा किस्सा लिखते हैं…भारत के प्रथम 50 धनिक में से, भारत के प्रथम 5 में से एक दवा कंपनी के संस्थापक और पूरे विश्व में अपनी मेडिसिन कारोबार को फ़ैलाने वाले सम्प्रदा सिंह को पूरा भारत संप्रदा बाबू ही कहता था और कहता रहेगा । और हम बिहार के लोगों के लिए वे संपदा बाबू थे। एक ऐसे वट वृक्ष जिनकी छत्रछाया में कई घर खुशहाल हुए। जिन्होंने कई बिहारियों को सिर्फ नौकरी नहीं दिया बल्कि उद्योगपति बनने के लिए प्रेरित किया।
कई कहानियां हैं , कई बातें है लेकिन एक कहानी जो मुझे पता है – वह इनके व्यक्तित्व को दर्शाता है । कहानी यह है कि इनके शुरुआती दौर में इनको हर संभव मदद करने वाले एक चिकित्सक जब कैंसर से पीड़ित हुए तब तक संप्रदा बाबू खरबपति हो चुके थे लेकिन अपने सारे कारोबार से ध्यान हटा कर अपने चिकित्सक मित्र के पटना आवास पर आ गए और महीनों अपने चिकित्सक मित्र के बिछावन के समीप चटाई पर सोए और दिन रात सेवा की । और लोग कहते है – वो चिकित्सक अपना मकान संप्रदा बाबू के नाम कर गए ।क्या अद्भुत दोस्ती रही होगी – मुझे तुम्हारा कर्ज नहीं रखना है तो मुझे तुम्हारा कर्ज नहीं रखना है । सलाम …ऐसे ही लोग कालजयी और युगद्रष्टा कहलाते हैं।
लेखक : प्रियदर्शन शर्मा, पत्रकार, पत्रिका