आज जब वोटों के गणित, सामाजिक ध्रु/वीकरण और सियासी नफा-नुकसान के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष के लोग संवैधानिक म/र्यादाओं और संवैधानिक प्रा/वधानों की ध/ज्जियां उड़ा रहे हैं और चाहे-अनचाहे बेवजह ट/कराव मोल ले रहे हैं, तब जननायक कर्पूरी ठाकुर की विचारधारा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है.
उनका मानना था कि संसदीय परंपरा और संसदीय जीवन राजनीति की पूंजी होती है, जिसे हर हाल में निभाया जाना चाहिए. उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा गरीब, पिछड़े, अति पिछड़े और समाज के शोषित-पी/ड़ित-प्र/ताड़ित लोग रहे हैं. शायद यही वजह रही है कि उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए कर्पूरी ठाकुर ने सदैव लोकतांत्रिक प्रणालियों का सहारा लिया. मसलन, उन्होंने प्रश्न काल, ध्यानाकर्षण, शून्य काल, कार्य स्थगन, निवेदन, वाद-विवाद, संकल्प आदि सभी संसदीय विधानों-प्रावधानों का इस्तेमाल जनहित में किया. उनका मानना था कि लोकतंत्र के मंदिर में ही जनता-जनार्दन से जुड़े अहम मुद्दों पर
फैसले लिये जाएं.
दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर जब 1977 में लोकसभा का चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे, तब उन्होंने अपने संबोधन में कहा था, संसद के विशेषाधिकार कायम रहें लेकिन जनता के अधिकार भी. यदि जनता के अधिकार कुचले जाएंगे, तो एक न एक दिन जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी.
आज की स्थितियां कमोबेश यही हैं. सरकारें जनहित को हाशिये पर धकेल, चंद लोगों की भलाई और चंद लोगों की सलाह पर जनविरोधी फैसले लेने लगी हैं. हालांकि, इसके निमित्त हर राजनीतिक दल अपने-अपने तर्क गढ़ रहे हैं और वे सभी इसके लिए स्वतंत्र हैं लेकिन व्यापक स्तर पर देखा जाये, तो इसे भी संसदीय परंपरा को धूमिल करने का एक कुत्सित प्रयास कहना अनुचित नहीं होगा.
प्रमुख समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि मेरे पास कुछ नहीं है, सिवा इसके कि इस देश का साधारण आदमी समझता है कि मैं उनका अपना आदमी हूं. आज नेता और जनता के बीच का वह अपनापन विलुप्त हो चला है. न तो लोहिया और चौधरी चरण सिंह के चेलों की राजनीति में, न ही जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर की विरासत संभाल रहे नेताओं में और न ही दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और हेडगेवार की वैचारिक परंपरा के वाहक और अटल-आडवाणी के चेलों की राजनीतिक कार्यप्रणाली में.
कहना न होगा कि सभी विचारधारा की राजनीति में आज जन मानस के लिए लोक कल्याण की राजनीति कुंद हो गई है. सभी दलों के नेता जनता को सिर्फ मतदाता समझने की भूल कर रहे हैं. अगर राजनेताओं ने ऐसी भूल नहीं सुधारी, तो इसका खामियाजा संसदीय मूल्यों को लंबे समय तक भुगतना पड़ सकता है.
कर्पूरी ठाकुर का संसदीय जीवन सत्ता से ओत-प्रोत कम ही रहा. उन्होंने अधिकांश समय तक विपक्ष की राजनीति की. इसके बावजूद उनकी जड़ें जनता-जनार्दन के बीच गहरी थीं. तब संचार के इतने सशक्त माध्यम नहीं थे. फिर भी कोई घटना होने पर वह सबसे पहले उनके बीच पहुंचते थे. यह जनता के बीच उनकी गहरी पैठ और आपसी सामंजस्य का प्रतिफलन था. वो हमेशा जनता की बेहतरी के लिए प्रयत्नशील रहे. जब उन्होंने 1977 में पहली बार मुख्यमंत्री का पद संभाला था, तब उन्होंने बिहार में शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए कई उपाय किये. वो जानते थे कि समाज को बिना शिक्षित किये उनकी कोशिश रंग नहीं ला सकेगी.
नाई जाति में पैदा होकर भी कर्पूरी ठाकुर कभी एक जाति, समुदाय के नेता नहीं रहे. वो सर्वजन के नेता थे. पक्ष, विपक्ष से जुड़े सभी लोग उनकी राजनीतिक शुचिता और दूरदर्शिता के कायल थे.
सामाजिक न्याय के हिमायती कर्पूरी ठाकुर ने उस वक्त सर्वसमाज को आरक्षण देने का गजट निकाला था, जब इसे लागू करने की कल्पना कठिन थी. अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के अलावा उन्होंने आज से चार दशक पहले ही सवर्ण गरीबों और हरेक वर्ग की महिलाओं को तीन-तीन फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया था.
कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री रहते हुए ही बिहार अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण लागू करने वाला देश का पहला सूबा बना था. उन्होंने नौकरियों में तब कुल 26% कोटा लागू किया था. तीन दशक बाद नीतीश कुमार ने उसी बिहार में महादलित और महापिछड़ा वर्ग बनाकर और महिलाओं को नौकरियों और पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण देकर कर्पूरी के सपनों को साकार किया है. बिहार सरकार ने सरकारी ठेकों में भी आरक्षण का प्रावधान किया है.
कहना गलत न होगा कि एक गरीब परिवार में जन्में विचारों के धनी कर्पूरी ठाकुर ने जिस राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय आज से करीब 40 साल पहले दिया था, वह देश के लिए आज और भी प्रासंगिक बन चुके हैं. उन्होंने देशी और मातृभाषा को बढ़ावा देने के लिए तब की शिक्षा नीति में बदलाव किया था. वो भाषा को रोजी-रोटी से जोड़कर देखते थे. देश आज भी नयी शिक्षा नीति की बाट जोह रहा है. उन्होंने गरीबों और भूमिहीनों के खातिर भूमि सुधार लागू करने की बात कही थी जो आज भी लंबित है. वो जानते थे कि इससे न केवल सामाजिक विषमता दूर होगी बल्कि कृषि उत्पादन में भी आशातीत बढ़ोतरी होगी. देश में आज भी भूमि अधिग्रहण पर एक मुकम्मल कानून बनाने में सरकारों को पसीने छूट रहे हैं क्योंकि वे जनमानस की जगह कॉरपोरेट घरानों से प्रेरित हो रही हैं.
कुल मिलाकर कहें, तो कर्पूरी ठाकुर देशी माटी में जन्मे देसी मिजाज के राजनेता थे, जिन्हें न पद का लोभ था, न उसकी लालसा और जब कुर्सी मिली भी तो उन्होंने कभी उसका न तो धौंस दिखाया और न ही तामझाम. मुख्यमंत्री रहते हुए सार्वजनिक जीवन में ऐसे कई उदाहरण हैं जब उन्होंने कई मौकों पर सादगी की अनूठी मिसाल पेश की. भारतीय राजनीति में ऐसे विलक्षण राजनेता कम ही मिलते हैं. शायद इसीलिए कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ नायक नहीं अपितु जननायक कहा गया.
(लेखक जदयू उपाध्यक्ष व पूर्व सांसद हैं और जननायक कर्पूरी ठाकुर विचार केंद्र, बिहार के केंद्रीय अध्यक्ष हैं.)