सच कहता हूं, स्मार्ट सिटी की नाक कट गई! मैं किसी जर्जर सड़क या बजबजाती नाली की वजह से शर्मसार नहीं हूं। ये तो हमारी पहचान हैं। शहर में महज 93 हजार रुपये की लूट की खबर अखबार के फ्रंट पेज पर पढ़कर मैं बेहद शर्मिंदा हूं। मैंने कभी सपने में नहीं सोचा था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा। हमारा शहर थाना के आसपास 25 से 30 किलोग्राम सोना या 20 से 40 लाख रुपए की लूट के लिए सुर्खियों में होता है। लुटेरों ने अकरा दिया। मुजफ्फरपुर का नाम पूरी मिट्टी में मिला दिया।
ईमानदारी की बात कह रहा हूं, रात की मीटिंग में हमें कभी फ्रंट पेज की खबरों का अकाल नहीं होता। कहीं न कहीं से बड़ी वारदात की खबर आ ही जाती है। जिस दिन कहीं से खबर नहीं आती है, उस रात हम अहियापुर थाना प्रभारी के शुक्रगुजार होते हैं। रात में फ्रंट पेज बनाते- बनाते उनके क्षेत्र में कहीं न कहीं किसी को टपका दिया जाता है। अहियापुर से गोली मारकर हत्या की खबर आ जाती है और हम अखबार वाले खुशी-खुशी अपनी रोजी-रोटी चला लेते हैं। जब अपराध की राजधानी में अखबारनवीसी करनी है तो खबरों का कैसा अकाल?
अपराध की राजधानी सुनकर गफलत में नहीं रहिए। हमारे शहर का दोहरा चेहरा है। हमसे बड़ा पाखंडी कोई हो ही नहीं सकता। हम पूजते हैं दुर्दांत अपराधियों को और माला जपते हैं बुद्ध-महावीर और गांधी की। जब हम सभाओं में भाषण देते हैं, सेमिनार को संबोधित करते हैं तो गर्व से सीना तान कर बोलते हैं- यह बिहार की सांस्कृतिक राजधानी है। यह उत्तर बिहार की राजनीतिक राजधानी है। यह लोकतंत्र की जन्मभूमि है। यह सामाजिक न्याय और न्याय के साथ विकास की प्रयोगभूमि है। यह समाजवादियों और गांधीवादियों की तप:भूमि है। जिला के विभाजन से पहले हम कहते थे- यह विदेह की धरती है। अब यह भगवान महावीर की जन्मभूमि और बुद्ध की कर्मभूमि है। हाथी के दांत खाने के और, दिखाने को और। हमने मुजफ्फरपुर को अपराध की राजधानी बना लिया है और इसे सांस्कृतिक राजधानी बताने का ढिढ़ोरा पिटते हैं। अब अपराध की राजधानी कहलाने की दावेदारी खतरे में है।
मुझे तो अगले चुनाव की चिंता सता रही है। भला हजार की लूट से कोई चुनाव का खर्च कहां से निकाल पाएगा। हमने डकैती-हत्या कांड के आरोपित को पहले विधायक और फिर मंत्री बनाया था। सड़क लूट के अपराधी को लगातार विधायक बनाते रहे। हम किसी गांधीवादी को बुलाकर उन्हें योग्य उम्मीदवार घोषित करा देंगे। लेकिन हम तो सिर्फ वोट दे सकते हैं। चुनाव जीतने के लिए लाखों रुपये की व्यवस्था तो उन्हीं को करनी पड़ेगी। गांधीवादी गिरोह उम्मीदवार बना सकता है, पैसे कहां से देगा? पैसे के लिए हमे अपने शहर में किसी अनंत, शहाबुद्दीन, सेंगर या राजबल्लभ को तलाशना पड़ेगा।
कोई मुगालते में नहीं रहे कि हत्यारों-लूटेरों के लिए बिहार में अच्छे दिन नहीं रहे। अगले दिन फिर अपराध की ताजा- सनसनीखेज खबर आ ही जाएगी। एक-दो दिन गोली नहीं चली तो ये नाटकवाज फिर से शहर को सांस्कृतिक राजधानी बनाने निकल पड़े। यह तो हद है! कहने लगे की एक सप्ताह का आम्रपाली नाट्य महोत्सव आयोजित होगा। जैसे- तैसे नाटक मंडलियों को भी बुला लिया। शहर को अपनी पहचान की चिंता है। बड़ी झोली वालों ने आइना दिखा दिया। महोत्सव के लिए फूटी कौड़ी नहीं दी। जगह ढूंढते रह गए कि आखिर कहां होगा नाट्य महोत्सव और किसके सहयोग से होगा? अगर किसी अपराधी को रंगदारी देनी हो तो हम सहर्ष सहायता से दे सकते हैं। इस नाटक नौटंकी में क्या रखा है? नाटकबाजों को अपनी दुकान बंद करनी पड़ी। हम साहित्यकारों और नाटककारों को कहां मना करते हैं कि वे सार्वजनिक मंच से शहर को सांस्कृतिक राजधानी नहीं बोलें। सस्ता का मुंह है,गांधीवादी-समाजवादी की तरह जो जी में आए उपाधि हासिल कर लें। लेकिन यह नाटकबाजी नहीं चलेगी। यहां तो हत्यारों-लुटेरों का हाई-वोल्टेज ड्रामा चलेगा।
मेरी चिंता की वजह यह है कि पुलिस वालों का मजाक उड़ाया जा रहा है। यह मुझे बर्दाश्त नहीं है। अहियापुर के थानेदार के खिलाफ कोई बड़ी साजिश चल रही है। चालबाजों ने अहियापुर थाने के ठीक सामने एक वाहन ड्राइवर से कहा कि साहब गाड़ी और माल के कागजात देखेंगे। कागजात देखने-दिखाने के चक्कर में ड्राइवर से चालबाज 60 हजार रुपए ऐंठकर भाग चला। मैं तो कहता हूं- ड्राइवर उल्लू था। यह सोचने वाली बात है कि किसी थानेदार के दिन इतने नहीं लद गए हैं। वह थाना के सामने 60 हजार रुपए की वसूली कराएगा। जहां थानों का डाक होता है, वहां हजार से क्या होगा? अगर दो-चार लाख की डिमांड होती तो मान लेता कि थाने का खर्च जुटाने के लिए योगदान जरूरी है। जब ड्राइवर को इतनी समझ नहीं है तो भुगते।
सच में आर्थिक मंदी आ गई है। कल तक मैं नहीं मानता था, लेकिन अब मुजफ्फरपुर में कहीं 60-62 हजार तो कहीं 30 हजार की लूट-ठगी होने लगी है। इतनी छोटी-छोटी राशि की लूट चीख-चीख कर आर्थिक मंदी की गवाही दे रही है। याद कीजिए हमारे शहर में पांच- 10 लाख से कम की लूट तो होती ही नहीं है। लोगों की जेब में पैसे नहीं हैं तो अपराधी क्या खाक लूटेंगे। मुझे तो उनपर बहुत दया आती है। इस तरह भीख मांगने से वे अपाचे या हंक कहां से खरीद पाएंगे? इस पैसे से तो 9 एमएम की पिस्टल भी नहीं खरीद पाएंगे। थानेदारों को बाल- बच्चों के लिए क्या देंगे? हम जैसे पत्रकारों को केस मैनेज करने के नाम पर क्या दे पाएंगे? वकील को क्या देंगे? कोई अपने नाम पर मांगे तो खुदगर्ज हजार-दस हजार थमा देते हैं। जब हाकिम को मैनेज करने के नाम पर मांगिए तो दो से पांच लाख तक निकालते हैं। इसलिए थाना से कलेक्ट्रेट तक सब लोग हाकिम को मैनेज करने के नाम पर लेते हैं। देखने वाली बात यह है कि हमारे यहां शहर में अलग-अलग थानों का डाक होता है। लुटरों की तरह थानेदारों का भी अपना-अपना परिवार होता है। पैसा हाथ का मैल होता है। मुंशी से लेकर जमादार तक में बांट देते हैं। अगर इसी तरह लुटेरे लाख से नीचे की बात करने लगे तो न जाने कितने परिवार बर्बाद हो जाएंगे!
क्या कभी आपने सोचा कि एक लड़की का पिता कितने अरमान से पुलिसवाला दामाद ढूंढ़ता है? तिलक में मुंह मांगी कीमत देनी पड़ती है। लाखों लाख नगद के अलावा गाड़ी अलग से। इतनी बड़ी कीमत चुकाने वाला लड़की का बाप अपनी बेटी को बचपन से ही बड़े नाजों से पाल रहा होता है। बेटियों को पलकों पर बिछाया। जब-जब बेटी ने कोई फरमाइश की, दौड़कर बाजार उठा लाया। इसलिए बेचारा पाप बेटी की हर फरमाइश पूरी करने वाला दामाद ढूंढ़ता है। वर्दी वाला दामाद इस मामले में सर्वाधिक योग्य होता है। बेटी को ब्यूटी पार्लर, लिपस्टिक, साड़ी, सुहाग की चूड़ियां और सिंदूर खरीदना होगा, काबिल दामाद उदारता से बेटी पर पैसे लुटाएगा। किसी अपराध पीड़ित परिवार के दरवाजे पर कफ़न फाड़कर पैसे का जुगाड़ कर लेगा। महीने में एक हत्याकांड की डायरी लिखने का मौका मिल जाए, दामाद जी उनकी बेटी की हर फरमाइश पूरी करते रहेंगे। एक डीजीपी भाग्यशाली निकले, आईपीएस दामाद ढ़ूंढ़ लाए। बेटी-दामाद की दुकानदारी की बाधाएं दूर करने के लिए डीजीपी ने तीन दिनों तक एक जिले के एसएसपी आवास में डेरा डाला। आईजी-डीआईजी एसएसपीजी की चौखट पर खड़े होते थे। उसके बाद क्या मजाल है कि कोई आईजी-डीआईजी हमारे दुलरुआ एसएसपी पर आंखें उठाकर देख ले!
हमने मुजफ्फरपुर को सांस्कृतिक राजधानी घोषित कराने के लिए अच्छी व्यूह रचना की है। हम आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के आवास- निराला निकेतन की चर्चा करते नहीं थकते। हम कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी के जमिंदोज हो रहे घर की तस्वीर दिखाते हैं। हम एलएस कॉलेज दिखाते हैं। गांधी कूप दिखाते हैं। 1917 में गया बाबू के जिस मकान में बापू ठहरे थे, उसे हम म्यूजियम बनाएंगे। यह सब हमारे हाथी के दांत होंगे। लेकिन जब कोई हमसे हमारा पता पूछेगा, हम बेशर्म होकर कहेंगे अमुक शूटर के घर के सामने वाली गली में! उनका घर हमारे शसर का लैंड-मार्क है। हम- आप अपने गली-मोहल्ले के लुटेरों- हत्यारों के नाम लेकर गर्व से कहते हैं कि वे तो मेरे पड़ोसी हैं। अंडरवर्ल्ड के जिस शूटर की इज्जत विधायक, सांसद एवं मंत्री के आवास और आईपीएस अधिकारी के कक्ष में है, भला हम उनका पड़ोसी होने पर गौरवान्वित क्यों नहीं होंगे? हमारे गली-गली में ऐसे दादा मौजूद हैं। बस उनके नाम का साइन बोर्ड लगना बाकी है। मशहूर बंदूकबाज इसी गली में रहते थे। मिनी नरेश इसी हॉस्टल में शहीद हुए थे। बाकी के नाम और स्थान याद कर हम-आप साइन बोर्ड लिखवा लेंगे। हमारे देहात में कहावत है- नामे नाम न त अकड़एले नाम! हमें तो नाम से काम है, सांस्कृतिक राजधानी न सही, अपराध की राजधानी ही सही।
Courtesy : Bibhesh Trivedi