पटना। देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद… देश की माटी से जुड़े सादगी की मिसाल एक शख्सियत, जो स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति (First President of India) बने। लेकिन वे देश के एकमात्र राष्ट्रपति रहे, जिन्होंने पद से हटने के बाद बंगले को छोड़ जर्जर खपरैल कुटिया जैसे मकान को आशियाना बनाया। बिहार से शुरु उनकी जीवन यात्रा को आज ही के दिन 1963 में बिहार में विराम मिला था। पटना के गंगा तट स्थित बांस घाट (Bans Ghat) पर उनका अंतिम संस्कार (Last Rites) किया गया। वहां उनकी समाधि है।
राष्ट्रपति रहने के बाद पटना के जर्जर खपरैल मकान में लौटे
डॉ. राजेंद्र प्रसाद (Dr. Rajendra Prasad) 12 साल तक राष्ट्रपति रहे, लेकिन जिंदगी ऐसी रखी कि गांव के सबसे गरीब आदमी को भी गले लगा सकें। सादगी की एक मिसाल यह भी है कि 12 साल राष्ट्रपति रहने के बाद बतौर पूर्व राष्ट्रपति वे अपनी बिगड़ती सेहत का इलाज देश-विदेश में कहीं भी करा सकते थे। लेकिन उन्होंने इसके लिए भी कोई सरकारी सुविधा लेना उचित नहीं समझा। पटना के उसी जर्जर खपरैल मकान में लौटे आए, जहां से उनकी राजनीतिक यात्रा शुरू हुई थी। उन्होंने कहा भी था, ”लौटकर वहीं जाऊंगा जहां से चलकर आया हूं।” किया भी ऐसा ही।
स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे तो बिहार विद्यापीठ बना ठिकाना
डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म बिहार के सिवान स्थित जीरादेई (Jeeradei) में हुआ था। वहां पहले-बढ़े, वहीं उन्होंने जीवन का बड़ा कालखंड गुजारा। आज जीरादेई स्थित उनका पैतृक मकान राष्ट्रीय स्मारक है। जीरादेई के महात्मा भाई व राजेंद्र प्रसाद की पैतृक संपत्ति के केयरटेकर सुरेंद्र सिंह उर्फ बच्चा बाबू बताते हैं कि इस मकान में स्वतंत्रता आंदोलन (Freedom Struggle) की कई कहानियां लिखी गईं। हालांकि, स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने के बाद बिहार की राजधानी पटना में बिहार विद्यापीठ परिसर (Bihar Vidyapeeth) उनका विशेष ठिकाना बना।
पटना में जब उच्च न्यायालय (Patna High Court) बना, तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद 1916 में यहां आ गए। इसके बाद महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की प्रेरणा से वकालत छोड़ स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। इसी दौरान 1921 से 1946 तक वे बिहार विद्यापीठ परिसर स्थित एक खपरैल मकान में रहे। इस परिसर की भूमि स्वतंत्रता सेनानी मौलाना मजहरूल हक (Maulana Mazharul Haq) की थी, जिसे उन्होंने कांग्रेस (Congress) को दान में दी थी।
इसी जगह गुजारा जीवन का अंतिम दौर, यहीं ली अंतिम सांस
साल 1947 के 15 अगस्त को देश स्वतंत्र हुआ। फिर राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति बने। बतौर राष्ट्रपति दिल्ली के रायसीना हिल स्थित विशाल राष्ट्रपति भवन (President House) में 12 साल रहने के बाद वे फिर 14 मई 1962 को पटना आकर उसी खपरैल मकान में ठहरे। लेकिन वे वहां अधिक दिनों तक नहीं रह सके। दमे के मरीज डॉ. राजेंद्र प्रसाद की बीमारी बढ़ती गई। अगले साल 28 फरवरी की रात वे चिर निद्रा में लीन हो गए।
राजेंद्र स्मृति संग्रहालय बना सहेज कर रखीं उनकी स्मृतियां
बिहार विद्यापीठ के अध्यक्ष विजय प्रकाश बताते हैं कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जीवन का बड़ा समय इसी पुराने खपरैल मकान में गुजारा। राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत होकर जब वे पटना आए तो उनके लिए बिहार विद्यापीठ परिसर में ही नया पक्का भवन बनवाया गया, लेकिन वे उसमें महज कुछ दिन ही रहे। अब यह राजेंद्र स्मृति संग्रहालय है, जहां उनकी स्मृतियां संजो कर रखी हुई हैं।
संग्रहालय में रखीं दैनिक उपयोग की वस्तुएं, ‘भारत रत्न’ भी
राजेंद्र स्मृति संग्रहालय में राजेंद्र प्रसाद के दैनिक उपयोग की वस्तुएं रखी हैं। वह चरखा है, जिससे वे सूत काटते थे। उनके कपड़े, चश्मे व छड़ी भी हैं। कमरे में रखी चौकी और किनारे में एक कतार से रखी कुर्सियां उस दौर में राजेंद्र प्रसाद से मिलने आने वालों की याद दिलाती हैं। चौकी पर सफेद चादर और इसपर राजेंद्र प्रसाद का अपनी पत्नी को लिखा पत्र आज भी रखा हुआ है। यहां रखी अम्ूल्य स्मृतियों में राजेंद्र प्रसाद को मिला ‘भारत रत्न’ भी शामिल है। संग्रहालय के मुख्य द्वार से सटे राजेंद्र प्रसाद की पत्नी राजवंशी देवी का कमरे में उनसे जुड़ीं कई स्मतियां सहेजी हुई हैं।
कमरे के बाहर बड़े आंगन के किनारे बने रसोई घर में पत्नी राजवंशी देवी भोजन बनातीं थीं। आंगन के ठीक उपर बरामदे में फर्श पर रखे लकड़ी के छोटे-छोटे तख्त पर बैठकर राजेंद्र प्रसाद भोजन करते थे। आंगन के बीच में तुलसी का पौधा लगा है।
आज भी जिंदा जमीन से जुड़ा सादगी भरा जीवन संदेश
डॉ. राजेंद्र प्रसाद आज हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन महानता व ऊंचाई के बावजूद जमीन से जुड़ा सादगी भरा उनका जीवन एक संदेश के रूप में आज भी जिंदा है। एस. राधाकृष्णन के शब्दों में यही सादगी उसकी ताकत थी। महाभारत में भी आया है- मृदुणा दारुणं हन्ति, मृदुणा हन्ति अदारुणाम्…। अर्थात् सादगी सबसे बड़ी कठिनाई पर विजय पा सकती है और सबसे कोमल पर भी जीत हासिल कर सकती है। अपनी सादगी की इस ताकत से उन्होंने दिलों को जीता। यही कारण है कि राजनीति की अलग-अलग धाराओं के बावजूद उनके आलोचक शायद ही मिलें।
Input : Dainik Jagran