नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री भारत की राजनीति में कीर्तिमानों की झड़ी लगा दी है। गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में सबसे लंबा कार्यकाल, चौथा लंबे समय तक देश के सेवारत प्रधानमंत्री, साथ ही जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों की सबसे अधिक अगुवाई करने वाले व्यक्ति बन गए हैं।

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देश के लिए संभवतः अब रिकार्ड और मोदी नाम का गठजोड़ अप्रत्याशित नहीं है। धीरे-धीरे आम जनमानस के लिए ये रोजमर्रा की खबरें होती जा रही है। कुछ यूं जैसे क्रिकेट जगत के बेताज बादशाह सचिन तेंदुलकर का नाम रिकार्ड्स का पर्याय मान लिया गया था।

भारतीय राजनीति की फलक पर ध्रुव तारा की तरह प्रकाशमान आज का मोदी नाम, कभी गर्दिश में भी चलायमान था। ब्रांड मोदी बन जाना इतना आसान भी नहीं है।
दरअसल जिस व्यक्ति ने चुनावी राजनीति में कभी पर्दापण ही नहीं किया हो। एक अदद सरपंच का चुनाव भी नहीं लड़ा था। ऐसे में भाजपा की केंद्रीय नेतृत्व के दिशानिर्देश पर नरेंद्र मोदी ने सात अक्टूबर, 2001 को गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिया था। तब नरेंद्र मोदी ने अपने दूरदर्शी रणनीति और निर्णय क्षमता से पूरे गुजरात में बाजी को ही पलट दी थी।

यद्यपि इसके पहले मोदी को 1995 में भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय सचिव और पांच राज्यों का पार्टी प्रभारी बनाया गया था। इसके बाद 1998 में महासचिव (संगठन) का पदभार मिला था।

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सांगठनिक अनुभव के अलावा शासन सत्ता का उनसे दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। वो एकदम से ऐसे राज्य के मुख्यमंत्री बन जाते हैं, जो प्राकृतिक आपदा और तमाम चुनौतियों के चक्रव्यूह से घिरा था। मोदी ने 2001 में तब मुख्यमंत्री पद संभाला, जब उसी साल जनवरी में गुजरात में आए विनाशाकारी भूकंप के बाद तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री और क्षत्रप केशुभाई पटेल को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। इस भूकंप में 20 हजार से अधिक लोग मर गए थे। हालांकि पहली बार 1995 में केशुभाई पटेल को नरेंद्र मोदी ने कुशल सांगठनिक रणनीतिक से मुख्यमंत्री बनवाया था।

सन् 2001 से नरेंद्र मोदी ने गुजरात की राजनीति पर ऐसी छाप छोड़ी की पकड़ लगातार मजबूत होती गई। गुजरात भाजपा का अभेद्य दुर्ग के तौर पर स्थापित हो गया है। वहीं विपक्ष में अब कोई ऐसा नेता नहीं दिखता जो उन्हें चुनौती देने के बारे में सोच भी सके।

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अब तो मोदी राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे सर्वकालिन सर्वश्रेष्ठ नेताओं की पंक्ति में खड़े है, जहां पर पहुंच असंभव सा दिख रहा है। विपक्ष भी अब खुलेआम मोदी की व्यक्तिगत आलोचना का जोखिम उठाने से बचता है। इसका दुष्परिणाम सभी के समक्ष प्रस्तुत है।

हालांकि मोदी के नाम में ऐसा क्या आकर्षण है, जो लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता है। ऐसी बानगी एक राजनीतिक हलकों में तैरता किस्सा देता है। दरअसल वर्ष 2001 की बात है, जब ग्वालियर राजपरिवार से जुड़े होने के बावजूद आम आदमी में काफी लोकप्रिय युवा कांग्रेसी नेता माधवराव सिंधिया की विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। उनके साथ रैली कवरेज के लिए जा रहे सात अन्य मीडियाकर्मियों की भी दुर्घटना में मौत हो गई।

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हालांकि खबर ऐसी थी कि अगले दिन अखबारों में सिर्फ और सिर्फ सिंधिया थें। सिंधिया के अंतिम संस्कार में देश के प्रधानमंत्री से लेकर तमाम राजनेता ठसाठस भरे हुए थें। वहीं दूसरी तरफ राजनेता तो दूर, मृत हुए मीडियाकर्मियों को याद करने की फुर्सत इनके चैनल तक को नहीं थी। लेकिन ऐसे में एक कैमरामैन के अंत्येष्टि में एक नेता का पहुंचना बड़ी बात होती है और ये नेता थें आज के प्रधानमंत्री और कीर्तिमानों की श्रृंखला खड़ी करने वाले ‘नरेंद्र मोदी’।

सार्वजनिक जीवन में हर निर्णय के गहरे निहितार्थ होते हैं। इनका सकारात्मक प्रभाव दूरगामी परिणाम देता है। आम से खास की यात्रा और यात्रा की पूर्णता के बाद उस स्तर को बरकरार रखना, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हो सकते हैं। वह रिकार्ड्स की वृत्ति से बाहर का व्यक्तित्व रखतें हैं। रिकार्ड्स उनके लिए जरूर बोनस है।

– लेखक : शिवा नारायण (ईटीवी भारत के पूर्व पत्रकार और वर्तमान में बिहार विधानसभा चुनाव में राजनीतिक विश्लेषक/ रणनीतिकार है)

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