ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स 2020 की लिस्ट में गुजर-बसर करने के हिसाब से बिहार के मुजफ्फरपुर को देश की सबसे बदतर जगहों में से एक बताया गया। यह सर्वे ग्रामीण एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने कराया था। दो लिस्ट थीं इसमें। पहली में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहर शामिल थे। दूसरी में 10 लाख से कम वाले। दूसरी लिस्ट में सबसे निचले पायदान पर रहा मुजफ्फरपुर।
मेरे पुरखों का आशियाना मुजफ्फरपुर में ही है। कोरोना कॉल में जब लॉकडाउन लगा, तो मैं भी वर्क फ्रॉम होम के लिए वहीं चला गया। मुजफ्फपुर से मेरी कई खूबसूरत यादें जुड़ी हैं। फिर भी मुझे लिविंग इंडेक्स की लिस्ट से कोई शिकवा नहीं। हैरानी तो बिल्कुल नहीं। मैं यह भी दावे के साथ कह सकता हूं कि मुज्जफरपुर के बाकी लोगों की राय भी मुझसे कुछ ख़ास अलग नहीं होगी।
इतनी कम रैंकिंग वाला कोई शहर ज़िंदगी के बारे में एक ही सबक सिखा सकता है, हालात चाहे जितने भी मुश्किल हों, घबराना नहीं चाहिए। पिछले साल अक्टूबर में जब मैं लॉकडाउन के बीच यहां आया, तो मैंने भी यही सबक सीखा। मुझे अपने घर से करीब दो किलोमीटर दूर एक दुकान पर राशन खरीदने के लिए दो घंटे तक इंतजार करना पड़ा। बदहाली के बारे में जब मैं काफी देर तक शिकायतें करता रहा तो आखिरकार मेरे माता-पिता भन्ना गए। लेकिन काफी नरम लहजे में उन्होंने मुझसे कहा कि यहां मुजफ्फरपुर में इस तरह का गुस्सा दिखाने का कोई मतलब नहीं।
उत्तर भारत के अधिकतर छोटे शहरों की तरह मुजफ्फरपुर में भी एक से दूसरी जगह जाने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं। ट्रैफिक जाम कई जगहों की रौनक बढ़ाता नज़र आता है। भगवानपुर चौक नैशनल हाइवे-22 और नैशनल हाइवे-102 का चौराहा जाना ही जाता है जाम के लिए। जूरन छपरा स्वास्थ्य सेवाओं का केंद्र है। वहां तो जाम की समस्या पूरे साल बनी रहती है। सरायगंज और मोतीझील, दोनों बाज़ार हैं। वहां जाम में दो-चार घंटे कब गुजर जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा। ये जगहें सही मायने में आपके सब्र का इम्तिहान लेती हैं।
मेरे उत्तराखंड के दोस्त बताते हैं कि पहाड़ियों में सफर की दूरी को अमूमन किलोमीटर में नहीं, बल्कि मिनट या फिर घंटे में मापा जाता है। वजह, पहाड़ के उबड़-खाबड़ रास्ते पर अक्सर दो-चार किलोमीटर का सफर तय करने में भी घंटों लग जाते हैं। यही हाल मुजफ्फरपुर का भी है। यहां भी दूरी मापने वाला पहाड़ी नियम लागू होता है। अगर आपकी डॉक्टर के साथ अपॉइंटमेंट है या फिर पटना से ट्रेन या फ्लाइट पकड़नी है, तो तय वक़्त से कुछ घंटे पहले निकलने में ही होशियारी रहती है। किसी भी सड़क की क्वॉलिटी का अंदाज़ा उस पर बने स्पीड ब्रेकर्स की संख्या और उनका आकार देखकर भी लगाया जा सकता है। इन दोनों ही मोर्चों पर सड़क की हालत काफी बदतर है। अपने घर के सामने भारी-भरकम स्पीड-ब्रेकर बनाकर क़ानून की धज्जियां उड़ाने वाले भी कम नहीं।
अगर ट्रैफिक और बड़े साइज वाले स्पीड ब्रेकर को छोड़ भी दें, तो चारों तरफ खुले नालों से आती बदबू चीख-चीखकर दुहाई देगी कि यह शहर क्यों रहने लायक नहीं। आधिकारिक रेकॉर्ड के अनुसार, शहर में जल निकासी व्यवस्था 1895 में शुरू हुई थी। आज इसका दायरा तकरीबन 137 किलोमीटर है। इसमें से सिर्फ साढ़े नौ किलोमीटर या सात फ़ीसदी नालियां ढकी हैं। बाकी खुली हुई हैं। चाहे वे कच्ची हों या फिर पक्की। इससे मुजफ्फरपुर मच्छरों के पनपने के लिए बिल्कुल मुफीद जगह बन जाता है। यहां के लोगों ने तो शहर को एक प्यारा नाम भी दे रखा है, ‘मच्छरपुर।’ देश के अधिकतर शहरों में सार्वजनिक जमीनों पर अतिक्रमण आम बात है। लेकिन मुजफ्फरपुर इस मामले में एक क़दम आगे है। यहां तो लोगों ने सरकारी नालियों को भी नहीं बख्शा। वार्ड नंबर-16 और 18 में जाने पर दो मकान मिलते हैं, जो सार्वजनिक नालियों के ऊपर बने हैं। ये दोनों ख़तरनाक ढंग से एक-दूसरे के ऊपर झुके हैं, मानो अब गिरने ही वाले हैं।
केंद्र सरकार ने जब 2017 में अपने महत्वाकांक्षी स्मार्ट सिटी मिशन का दायरा तीसरी बार बढ़ाया, तो उसमें मुजफ्फपुर और पटना को भी शामिल किया। मुजफ्फरपुर को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए कई योजनाओं पर तकरीबन 16 सौ करोड़ रुपये खर्च करने का प्रस्ताव है। नाम न जाहिर करने की शर्त पर नगर पालिका के एक अधिकारी बताते हैं कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत प्रस्तावित एक भी योजना पूरी नहीं हुई। उनका कहना है कि विभागों के बीच तालमेल ही नहीं है। वरिष्ठ नौकरशाहों का आए दिन तबादला होता रहता है। इस सूरत में परियोजना आगे बढ़े भी तो कैसे? वार्ड नंबर दो में रहने वाले चंदन कुमार सवाल करते हैं, ‘जरा गौर से देखिए, यह शहर आपको किसी भी एंगल से स्मार्ट सिटी जैसा दिखता है?’
पानी टंकी चौक पर स्मार्ट सिटी का जिक्र छिड़ते ही दुकानदार हंसने लगे। इस चौक का नाम एक बड़े वाटर टैंक की वजह से पड़ा है। यह ब्रिटिश काल में बना था। इससे जाहिर होता है कि मुजफ्फरपुर में आज़ादी से पहले भी वाटर सप्लाई सिस्टम था यानी यह शहर हमेशा से बदहाल नहीं था। देश के दूसरे शहरों की तरह यहां की मौजूदा समस्याओं के लिए सरकारी कुप्रबंधन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। 2018 में मुजफ्फपुर कुख्यात शेल्टर हाउस यौन उत्पीड़न की वजह से सुर्खियों में आया। उस कांड ने पूरे देश को हिला दिया। हालांकि, यह शहर अब भी उत्तर बिहार का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र है।
इस शहर का स्वतंत्रता संग्राम में अहम योगदान रहा। सत्याग्रह आंदोलन शुरू करने के लिए चंपारण जाने से पहले महात्मा गांधी यहीं रुके थे। उनकी अगवानी आचार्य जेबी कृपवानी ने की थी, जो उस वक़्त एलएस कॉलेज में पढ़ा रहे थे। इसी शहर में वह बम कांड हुआ था, जो महज 18 साल की उम्र में क्रांतिकारी खुदीराम बोस को फांसी पर चढ़ाने की वजह बना। मुजफ्फरपुर की पहचान रसीली लीची भी है, जो यहां बहुतायत होती है। वैशाली के खंडहर देखने जाने वाले बौद्ध श्रद्धालु भी यहां लगातार आते रहते हैं। माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने वैशाली में ही अपना अंतिम उपदेश दिया था। यहां एक अशोक स्तंभ ही है, जिस पर बैठा इकलौता शेर कुशीनगर की ओर इशारा करता है। महात्मा बुद्ध उसी दिशा में आगे गए थे।
वर्तमान के उलट मुजफ्फरपुर का अतीत काफी समृद्ध रहा है। इसका लिविंग इंडेक्स में एकदम निचले पायदान पर आना एक कड़वी हक़ीक़त है, जिसे हम स्वीकारने को मजबूर हैं।
Input : रोहित उपाध्याय
ये लेखक के निजी विचार हैं