सम्पूर्ण जगत के प्रत्यक्ष और जाग्रत देवता भगवान् भास्कर की अभ्यर्थना–उपासना का चतुर्दिवसीय अनुष्ठान, हमारी कृषि संस्कृति का महत्त्वपूर्ण लोकपर्व ‘छठ’ केवल सनातन धर्मी श्रद्धालुओं का पारंपरिक पर्व ही नहीं, बल्कि यह अकेला ऐसा पर्व है, जिसने लोक और शास्त्र की विभाजक सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए समाज में साम्प्रदायिकता की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दीवार को भी तोड़ा है, इसका मुख्य कारण प्रकृति और पर्यावरण से इसकी गहरी सम्बद्धता है. सम्पूर्ण ऋतुचक्र सूर्य की गति से ही नियंत्रित होता है, इस कारण समस्त प्राणिजगत के साथ सूर्य का प्राकृतिक तथा पर्यावरणिक सम्बन्ध है. सभी प्राणियों में सूर्य अंश रूप में विद्यमान हैं. ज्योतिष-शास्त्र कहता है कि सूर्य से ही व्यक्ति में तेज, बल, पराक्रम, मेधा और ऊर्जा का संचार होता है. सूर्य के निर्बल या वक्री होने की स्थिति में ये गुण क्षीण हो जाते हैं और उनकी विधिवत अभ्यर्थना- उपासना से इन गुणों को सबलता प्राप्त होती है. स्पष्ट है कि सूर्य हमारी सनातनधर्मी परंपरा में एक प्रत्यक्ष देवता के रूप सदा से पूज्य रहे हैं साथ ही कृषि और पर्यावरण से जुड़े सूर्य के प्रत्यक्ष सम्बन्ध लोक-जीवन से उन्हें जोड़े रखने में भी सहायक हुए हैं. नयी फसल के नवान्न और खाद्य-पौधों के साथ सम्पूर्ण प्रकृति और पर्यावरण के नियंता की अभ्यर्थना, वह भी अस्ताचलगामी स्वरूप को पहला अर्घ्य इसलिए कि हम पूरी नियम-निष्ठा से रात भर उनकी प्रतीक्षा करते हुए कल के भोर में उनका स्वागत कर सकें.
मनुष्य समेत सभी प्राणियों में अपनी कोटि-कोटि किरणों से ऊर्जा का संचार करनेवाले, सम्पूर्ण प्रकृति की गति और लय के नियामक भगवान भास्कर के असीमित दाय के प्रति आस्था और कृतज्ञता प्रकट करने के उद्देश्य से समायोजित यह चार दिवसीय पवित्र अनुष्ठान एक साथ सामान्य जन और बुद्धिजीवी दोनों के लिए अपार आस्था का केंद्र है. अपने लौकिक स्वरूप में छठ तिथि मातृका की उपासना है तो शास्त्रीय स्वरूप में प्रकृति और पर्यावरण के सूत्रधार सूर्य के दाय के कृतज्ञ- स्मरण का अनुष्ठान भी. भारतीय संस्कृति में विभिन्न ऋतुओं में अलग-अलग पर्व-त्योहार के आयोजन होते हैं, सबके पौराणिक धार्मिक आधार भी हैं मगर छठ का स्वरूप भिन्न है, इसमें पौरोहित्य परम्परा का अतिक्रमण कर धार्मिक अनुष्ठान को सर्वजन सुलभ बनाने का एक सुनियोजित उपक्रम दिखाई देता है.
परम्परा विभंजन का यह अप्रत्यक्ष दर्शन भी इसे अन्य पर्वों की तुलना में महत्वपूर्ण बनाता है छठ पर्व के लौकिक, शास्त्रीय, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक महत्व- निरूपण के क्रम में अनेक बिंदु उजागर हो सकते हैं किन्तु इस पूरे पर्व पर केवल प्रकृति और सूर्य की केन्द्रीयता में विचार करें तो भी इस पर्व के लगातार बढ़ते प्रसार और बदलते समय में भी इसके अक्षुण्ण महत्त्व का पता चल सकता है. यह अकेला पर्व है, जिससे समाज का हरेक वर्ग ही नहीं बल्कि परंपरा को सिरे से नकारनेवाली नयी पीढ़ी भी संवेदनात्मक जुड़ाव महसूस करती है. अपने माता-पिता और दूरदराज बसनेवाले अन्य सदस्यों से वर्ष भर में कम-से-कम एक बार मिलने का एक अच्छा अवसर है यह पर्व. कुछ लोग इसे संतान की कामना से जुड़ा पर्व मानते हैं मगर उस मामले में भी एकदम अनूठा है, इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीतों में बेटों का महत्त्व है तो ‘रूनकी-झुनकी बेटी’ का भी. मूलतः सूर्योपासना के इस अनुष्ठान से छठी मइया का क्या सम्बन्ध है? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है. इस व्रत का एक नाम प्रतिहार षष्ठी भी है. यह अनुष्ठान षष्ठी तिथि को पड़ता है. इसी ‘षष्ठी’ शब्द का लोकभाषा रूपांतर ‘छठी’ है, इस चार दिवसीय अत्यन्त पवित्र और कठिन अनुष्ठान में शुचिता की संरक्षिका और अभिभाविका के रूप में तिथिमातृका छठीमइया हमें सचेत और आश्वस्त करने के उपस्थित रहती हैं.
– डॉ. शेखर शंकर मिश्र