‘पूस की भोर। खलिहान में धान के बोझों का अंबार। खेत-खलिहान हर तरफ कुहासा, जिसे छेद कर आने में सूरज की बाल-किरणों को कष्ट हो रहा था। काफी ठंड थी; धीरे धीरे बहती ठंडी हवा सनककर कलेजे को हिला जाती।’ इन पंक्तियों के लेखक को कलम का जादूगर कहते हैं। बेनीपुरी की भाषा सहज, सधी और छोटे-छोटे वाक्यों से मिलकर बुनी जाने वाली है। यूं ही उन्हें कलम का जादूगर नहीं कहा जाता है। जिंदगी के विविध रंगों को रेखांकित करतीं बेनीपुरी की सशक्त लेखनी से निकली रोचक, मार्मिक व संवेदनशील रेखाचित्र है माटी की मूरतें। प्रस्तुत है कुछ अंश…

जब कभी आप गांव गए होंगे, देखा होगा किसी बड़ या पीपल के पेड़ के नीचे, चबूतरे पर कुछ मूरतें रखी हैं माटी की मूरतें! ये मूरतें न इनमें कोई खूबसूरती, न रंगीनी। किंतु इन कुरूप, बदशक्ल मूरतों में भी एक चीज है, शायद उस ओर हमारा ध्यान नहीं गया, वह है जिंदगी! ये माटी की बनी हैं, माटी पर धरी हैं; इसीलिए जिंदगी के नजदीक, जिंदगी से सराबोर हैं। ये देखती हैं, सुनती हैं, खुश होती हैं; शाप देती हैं, आशीर्वाद देती हैं। खुश हुईं संतान मिली, अच्छी फसल मिली, मुकदमे में जीत मिली। नाराजगी से बीमार पड़ गए, महामारी फैली, फसल पर ओले गिरे, घर में आग लग गई। ये मूरतें जिंदगी के नजदीक ही नहीं, जिंदगी में समाई हुई हैं। इसलिए जिंदगी के हर पुजारी का सिर इनके नजदीक आप-ही-आप झुक जाता है। ये कहानियां नहीं, जीवनियां हैं! ये चलते-फिरते आदमियों के शब्दचित्र हैं।

Input : Dainik Bhaskar

रामवृक्ष बेनीपुरी के नाती महंथ राजीव रंजन बताते हैं कि इनकी पुण्यतिथि पर केवल घोषणाएं होती हैं। समाधि स्थल का सपना साकार नहीं हुआ,। आदमकद प्रतिमा भी नहीं बनी।

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