सिर पर मैला ढोने की प्रथा बिहार से समाप्त हो गई है। हालांकि यह ढाई दशक बाद संभव हो पाया है। इससे संबंधित कानून ‘सिर पर मैला ढोने वालों को रोजगार और शुष्क शौचालयों के निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993’ देश में 26 साल पहले लागू हुआ था।

बिहार राज्य महादलित विकास मिशन ने राज्य सरकार को सौंपी रिपोर्ट में जानकारी दी है कि बिहार में अब कहीं भी कोई मैनुअल स्केवेंजर (सिर पर मैला ढोने वाले) नहीं हैं। इसकी सूचना अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग ने केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को भी भेज दी है।

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग के निर्देश पर महादलित विकास मिशन के माध्यम से पूर्व से चिह्नित 14 जिलों में सर्वेक्षण कराया गया। इन जिलों में पूर्व से संचालित शुष्क शौचालय को समाप्त करने को मुख्य रूप से प्राथमिकता दी गई थी। इनमें अररिया, औरंगाबाद, बक्सर, गया, गोपालगंज, जहानाबाद, कटिहार, नालंदा, पटना, पूर्णिया, रोहतास, सहरसा, सारण, सीतामढ़ी, सीवान तथा सुपौल जिले शामिल थे। इसमें सभी जिला कल्याण पदाधिकारियों ने स्थानीय प्रशासन की मदद से मिशन को सर्वेक्षण कार्य में सहयोग किया है। मिशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अधिकतर जिलों में सिर पर मैला ढोने के काम में लगे श्रमिकों ने अपना कार्य क्षेत्र बदल लिया है और अब वे सफाईकर्मी का काम कर रहे हैं।

यह प्रथा एक समय बिहार में था बड़ा मुद्दा

सिर पर मैला ढोने की प्रथा आजादी के बाद से ही बिहार के राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में एक बड़ा मुद्दा था। दलित राजनीति की यह एक धूरी बनी हुई थी। हालांकि महात्मा गांधी ने 1917 में जोर देकर कहा था कि साबरमती आश्रम में रहने वाले लोग अपना शौचालय खुद साफ करेंगे। महाराष्ट्र हरिजन सेवक संघ ने सिर पर मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ 1948 में आंदोलन किया था। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई निर्देश जारी कर रखे हैं। बावजूद बिहार में इसे खत्म होने में अरसा लग गया।

बिहार में मैनुअल स्केवेंजर (सिर पर मैला ढोने वाले) का सर्वेक्षण कराया गया था। इस सर्वेक्षण में ऐसा व्यक्ति कहीं भी नहीं पाया गया। इसकी जानकारी केंद्र सरकार को दे दी गई है। ’
– प्रेम सिंह मीणा, सचिव, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग, बिहार सरकार

Input : Hindustan

 

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