अल्जाइमर रोग (Alzheimer’s Disease) का कोई इलाज नहीं। हां, इसके कुप्रभावों को दवाओं से नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब इस बीमारी का इलाज हो सकेगा। आस्ट्रेलिया में कार्यरत बिहार के डॉ. सैयद हारिस उमर ने जैतून से अल्जाइमर के इलाज पर महत्वपूर्ण शोध किया है।
भूलने का रोग है अल्जाइमर
अल्जाइमर ‘भूलने का रोग’ है। इसका नाम अलोइस अल्जाइमर पर रखा गया है, जिन्होंने सबसे पहले इसका विवरण दिया था। यह बीमारी खासकर वृद्धों में होती है। इस बीमारी में याददाश्त की कमी हो जाती है। रोगी के निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है। उसे बोलने में परेशानी आती है।
दादी को अल्जाइमर से पीडि़त देख आया शोध का विचार
इस बीमारी पर शोध कर रहे हैं दरभंगा के डॉ. सैयद हारिस उमर। वे आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में फार्माकोलॉजी विभाग में वरिष्ठ व्याख्याता हैं। वहां वे अल्जाइमर के अलावा पार्किंसन के इलाज पर भी शोध कर रहे हैं। इसे लेकर वे भारत में काम करना चाहते हैं। इसके लिए वे कई विश्वविद्यालयों से संपर्क कर रहे हैं। डॉ. उमर बताते हैं कि बचपन में दादी को अल्जाइमर से पीडि़त देख इसके उपचार पर काम करने का विचार आया।
आस्ट्रेलिया में अध्यापन के दौरान किया शोध
बिहार के दरभंगा स्थित चकरहमत मोहल्ला निवासी डॉ. सैयद हारिस उमर ने 1997 में जीव विज्ञान विषय में सीएम साइंस कॉलेज (दरभंगा) से आइएससी की पढ़ाई की। इसके बाद जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय (नई दिल्ली) से फार्मेसी में स्नातक करने के बाद 2007 से 2010 तक सऊदी अरब में व्याख्याता रहे। फिर मार्च 2011 में आस्ट्रेलिया के प्रतिष्ठित न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान अल्जाइमर के इलाज पर शोध शुरू किया।
चूहों पर सफलता के आद अब मानव पर प्रयोग
अपने शोध में उन्होंने पता लगाया कि अल्जाइमर में मस्तिष्क कोशिकाओं में बीटा एमाइलॉयड नामक प्रोटीन का संग्रह होने से स्मरण शक्ति कम होने लगती है। ऐसे में जैतून का उपयोग इसे रोकने में किया जा सकता है।
उन्होंने इसका प्रयोग पहले चूहों पर किया, जो सफल रहा। डॉ. उमर बताते हैं कि चूहों की मस्तिष्क कोशिकाओं में एकत्रित बीटा एमाइलॉयड को नियंत्रित करने में जैतून में पाए जाने वाले बॉयोफेनोल्स का इस्तेमाल सफल रहा। वे अभी मानव शरीर पर इसके प्रभाव पर वे शोध में लगे हैं। अब भविष्य में इसका उपयोग मनुष्य में अल्जाइमर के इलाज में हो सकेगा।
कई जर्नल व किताबों में हो चुका प्रकाशन
डॉ. उमर ने अपना शोध 2015 में पूरा किया। शोध पूरा होने के बाद कई जर्नल व किताबों में इसका प्रकाशन हो चुका है। डॉ. उमर का शोध औषधि विज्ञान, तंत्रिका विज्ञान और तंत्रिका संबंधी रोगों के विरुद्ध प्राकृतिक उत्पादों के क्षेत्र में हैं। उनके कई वैज्ञानिक लेख भी प्रकाशित हो चुके हैं।
ललित नारायण मिथिला विवि के साथ होगा जुड़ाव
बिहार के ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय (दरभंगा) के साथ भी उनके जुडऩे की योजना पर बात चल रही है। अल्जाइमर के क्षेत्र में काम करने वाली देश की प्रतिष्ठित संस्था अल्जाइमर्स एंड रिलेटेड डिसऑर्डर्स सोसाइटी ऑफ इंडिया (एआरडीएसआइ) का चैप्टर जल्द ही दरभंगा में खुलने वाला है। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में संचालित इंस्टीच्यूट ऑफ जेरंटोलॉजी एंड जेरिएट्रिक्स के साथ इस राष्ट्रीय संगठन के सहयोग की प्रक्रिया चल रही है। इस चैप्टर के दरभंगा में शुरुआत के साथ ही डॉ. उमर भी जुड़ेंगे।
ललित नारायण मिथिला विवि के जीव विज्ञानी डॉ. एम नेहाल का कहना है कि जैतून में पाए जाने वाले बायोफेनोल्स को लेकर डॉ. उमर का शोध अल्जाइमर में कारगर साबित हो सकता है। विवि में एआरडीएसआइ के दरभंगा चैप्टर की शुरुआत इसी वर्ष होने की संभावना है। इसकी सैद्धांतिक सहमति बन चुकी है।
Input : Dainik Jagran