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भारत का सबसे महंगा ‘आम’ जिसके नाम से मिल रहे हैं बॉन्ड्स, आप भी लगा सकते हैं पैसा
आप अल्फांसो (हापुस) आम को न सिर्फ खरीद कर खा सकते हैं बल्कि इसमें पैसा लगाकर मुनाफा भी बटोर सकते हैं.
देश में जैसे ही गर्मी शुरू होती है वैसे ही एक फल जो सबसे जल्दी आने लगता है वो और कोई नहीं बल्कि फलों का राजा आम है. आम बाज़ार में आता है तो अपनी तमाम क़िस्मों और स्वादों से जी को ललचाने लगता है. इसका शाही पीलापन बाकी सभी फलों को फीका कर देता है. लेकिन भारत का वो खास आम जो दुनियाभर के लोगों के जी ललचाने वाला बन गया है…जी हां अल्फांसो (हापुस)… आपको ये जानकर अब और भी हैरानी होगी कि अब इस आम को खरीद नहीं कर खा ही नहीं सकते हैं बल्कि इसमें पैसा लगाकर मुनाफा भी बटोर सकते हैं.
अल्फांसो (हापुस) आम की संस्था (आंबा उत्पादक सहकारी संस्था) ने 50 हजार रुपये का मैंगो बॉन्ड जारी किया है. यह अपने आप में पहला और खास बॉन्ड है. इसमें पैसा लगाने वालों को हर साल 10 फीसदी ब्याज (मुनाफे) के तौर पर 5 हजार रुपये के आम घर बैठे मिलते हैं. देश भर के 200 से ज्यादा लोग अब तक इस मैंगो बॉन्ड में निवेश कर चुके हैं. महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले की देवगढ़ तहसील अल्फांसो आम के लिए दुनियाभर में पहचानी जाती है.
मैंगो बॉन्ड स्कीम क्या है
बिज़नेस न्यूज पेपर लाइव मिंट में छपी खबर के मुताबिक, आंबा उत्पादक सहकारी संस्था इस बॉन्ड स्कीम को चलाती है. इसको अगर आसान शब्दों में समझें तो जान लीजिए आपको एक बार 50 हजार रुपये देने होंगे. इसके बाद 5 साल तक आपको 5 हजार रुपये के आम मिलेंगे. इसके बाद आपकी मूल राशि वापस मिल जाएगी.
- न्यूनतम मैंगो बॉन्ड 50 हजार रुपये का है.
- इसके बाद निवेशक 5,000 रुपये के गुणकों में राशि बढ़ा सकता है.
- निवेशक 5 हजार के आम एकमुश्त ले सकता है या अलग-अलग हफ्ते में ले सकते हैं.
- इसमें 5 साल का लॉक-इन पीरियड भी है.
- पहली बार मैंगो बॉन्ड 2011 में जारी किए गए थे.
- अब मैंगो बॉन्ड्स 2.0 वर्जन लॉन्च किया गया है.
- मैंगो बॉन्ड की योजना के तहत आम के दामों की कीमत भी पांच साल के लिए तय हो जाती है.
- निवेशक ने जिस कीमत पर इस साल पैसे लगाए हैं, उसी कीमत पर उसे अगले पांच साल तक आम मिलते रहेंगे.
देशभर के 200 से ज्यादा लोग अब तक इस मैंगो बॉन्ड में निवेश कर चुके हैं. आंबा उत्पादक सहकारी संस्था को चलाने वाले ओंकार सप्रे के मुताबिक, मैंगो बॉन्ड में निवेश करने वालों में मुंबई के ही नहीं दिल्ली, हैदराबाद, बेंगलुरु, अहमदाबाद के लोग भी हैं. इसके तहत लोगों के घरों में आम पहुंचा रहे हैं. करीब 700 किसान संस्था से जुड़े हैं. साथ ही, ऑनलाइन आम बेचने वाली भी पहली सहकारी संस्था है.
क्यों शुरू की ये स्कीम
संस्था का कहना है कि देवगढ़ के मशहूर आम के नाम पर गलत चीज़े बेची जा रही थी. इससे हमारा नाम खराब हो रहा था. इसलिए ऑनलाइन आम बेचने का विचार आया और आम उत्पादक किसानों को एकत्रित कर यह संस्था बनाई गई.
आमों का राजा है अल्फांसो (हापुस)
आजकल इसे आमों का राजा के नाम से बाजार में बेचा जाता है. इस वैराइटी को पुर्तगालियों ने तैयार किया था. यह महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक, मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में पैदा होता है. इसे अंग्रेजी में अलफांसो, मराठी में हापुस, गुजराती में हाफुस और कन्नड़ में आपूस के नाम से जाना जाता है.
उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और तमिलनाडु प्रमुख आम उत्पादक राज्य हैं. आम उत्पादन में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है जिसकी कुल उत्पादन में 23.47 फीसदी हिस्सेदारी है. इसमें महाराष्ट्र का हिस्सा महज 2 फीसदी है, लेकिन एक्सपोर्ट में महाराष्ट्र का हिस्सा 80 फीसदी है. महाराष्ट्र का हापुस लोगों के सिर चढ़कर बोलता है. यह सबसे चर्चित आमों में से एक है.
इसकी मिठास, स्वाद और सुगंध बाकी आमों से बिल्कुल अलग है. इसकी खासियत है पकने के एक हफ्ते बाद तक खराब नहीं होता. इस खास गुण के कारण ही देश से बाहर एक्सपोर्ट किए जाने वाले आमों में हापुस की मांग सबसे ज्यादा है. कीमत में भी यह सब से महंगा होता है. महाराष्ट्र हर साल करीब 13,000 मिट्रिक टन आम का एक्सपोर्ट करता है.
महाराष्ट्र के कोंकण इलाके में सिंधुदुर्ग जिले की देवगढ़ तहसील अल्फांसो (हापुस) आम के लिए दुनियाभर में पहचानी जाती है. यहां 45 हजार एकड़ में इस आम के बाग हैं.70 गांवों के करीब 1,000 किसान सालाना हजारों टन आम उत्पादन करते हैं.
विदेशों में भी हुआ खास
यही भारतीय आम विदेशियों को भी ललचाने लगा है. आम के लिए वे मुंहबोली कीमत देने के लिए तैयार हैं. एशिया, यूरोप, अमेरिका, अरब, अफ्रीका समेत 60 से ज्यादा देशों में आम की मांग तेजी से बढ़ी है. आम अब डॉलर, पाउंड और यूरो कमाने लगा है, इसलिए अब यह ‘खास’ हो गया है. 2016-17 में 53,177.26 मैट्रिक टन आम का एक्सपोर्ट कर हमने 67.25 मिलियन अमेरिकी डॉलर यानी 445.55 करोड़ रुपये कमाए थे. विदेशी बाजार में आम की मांग साल दर साल बढ़ती ही जा रही है, लेकिन हम उसकी पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं. इसका कारण है आम के पैदावार की मौसम पर निर्भरता.
मिल चुका है जीआई टैग
अल्फांसो आम को भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग दिया है. यह अल्फांसो की प्रामाणिकता और मजबूत करता है.
आपको बता दें कि किसी क्षेत्र विशेष के उत्पादों की पहचान को जियोग्रॉफिल इंडीकेशन सर्टिफिकेशन दिया जाता है. इस सूची में चंदेरी की साड़ी, कांजीवरम की साड़ी, दार्जिलिंग चाय और मलिहाबादी आम शामिल हैं.
भारत में आम की लगभग 1000 किस्में पाई जाती हैं, जिसमें से 30 किस्म के आमों की मांग विदेशों में सबसे ज्यादा है. महाराष्ट्र के रत्नागिरी के देवगण में पैदा होने वाले अलफान्सो यानी हापुस के अलावा दशहरी, चौसा, बादामी, लंगड़ा, तोतापरी, केसर, हिमसागर, बंगपाली या सफेदा व नीलम जैसे अन्य आम विदेशियों को खूब रास आते हैं.
स्वास्थ्य के लिए आम उपयोगी माना जाता है. केवल एक आम दैनिक आहार की 40 प्रतिशत जरूरतों को पूरा कर सकता है तथा यह हृदय रोग, कैंसर और कोलेस्ट्रोल निर्माण को रोकने के लिए प्रतिरक्षक के रूप में कार्य करता है . इसके अलावा यह लज्जतदार फल पोटाशियम बेटा-करोटिन और एन्टी ऑक्सिडेंट्स का भंडार है.
आम का इतिहास-आम हमारे देश का राष्ट्रीय फल है. इसे सदियों से उगाया जा रहा है. यह हमारे जीवन से जुड़ गया. इतना जुड़ गया कि उत्सवों और त्योहारों पर घर में आम की पत्तियों के बंदनवारों से सजाए जाने लगे. आम्रपाली जैसे नाम रखे गए. यज्ञ के लिए आम की पवित्र लकड़ी की समिधा बनाई जाने लगी. गांव-कस्बों में लोग अमराइयों की घनी, शीतल छांव में विश्राम करने लगे. बच्चे आम के पेड़ों पर चढ़ते, उतरने और झूला झूलने लगे.
कहते हैं, हमारे देश में कम से कम 4,000 से 6,000 वर्ष पहले से आम की खेती की जा रही है. रामायण और महाभारत में आम के उपवनों का वर्णन किया गया है.
327 ईस्वी पूर्व में सिकंदर भारत पर आक्रमण करने आया. उसके सैनिकों ने सिंधु घाटी में पहली बार आम के पेड़ देखे. प्रसिद्ध चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी भारत में आम के पेड़ देखे थे.
एक और विदेशी यात्री इब्नबतूता ने तो यह भी लिखा कि यहां के लोग कच्चे आम का अचार बनाते हैं. पके हुए फल चूस कर या काट कर खाते हैं. हर किसी का अपना एक पसंदीदा आम होता है. यूपी वालों को दशहरी मन भाता है तो मुंबई वाले अलफांसो लुभाता है.
दिल्ली वाले चौसा की मिठास के गाने गाते हैं, तो बेंगलुरु वालों को बंगनपल्ली का स्वाद दीवाना बनाता है. तेज गर्मी में आम का स्वाद इसके हर पसंद करने वाले को राहत दिलाता है. अब आपको कौन-सा आम पसंद है यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस प्रांत से हैं और आपका बचपन कहां बीता.
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Input : News18
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मेंगलुरु-मुंबई विमान में हुई अजीब घटना, प्रेमी जोड़े का व्हाट्सएप्प चैट बना उड़ान में देरी की वजह

मेंगलुरु (कर्नाटक). मेंगलुरु से मुंबई जाने वाले विमान को उड़ान भरने में उस समय छह घंटे की देरी हुई. जब एक महिला यात्री ने उसके साथ यात्रा कर रहे एक व्यक्ति के मोबाइल फोन पर संदिग्ध संदेश आने के बारे में जानकारी दी. पुलिस ने बताया कि सभी यात्रियों को विमान से उतरने के लिए कहा गया और उनके सामान की व्यापक रूप से तलाशी ली गयी. इसके बाद ही इंडिगो के विमान को रविवार शाम को मुंबई के लिए उड़ान भरने की अनुमति दी गई.
एक महिला यात्री ने विमान में सवार एक व्यक्ति के मोबाइल फोन पर एक संदेश देखा और विमान के चालक दल को इसकी जानकारी दी. चालक दल ने हवाई यातायात नियंत्रक को इसकी सूचना दी और उड़ान भरने के लिए तैयार विमान को रोकना पड़ा.
बताया जाता है कि यह व्यक्ति अपनी प्रेमिका से मोबाइल पर संदेश भेजकर बातचीत कर रहा था, जिसे उसी हवाईअड्डे से बेंगलुरु के लिए उड़ान भरनी थी. इस व्यक्ति को पूछताछ के कारण विमान में सवार होने नहीं दिया गया. पूछताछ कई घंटों तक चली जबकि उसकी प्रेमिका की बेंगलुरु की उड़ान छूट गयी. बाद में सभी 185 यात्री मुंबई जाने वाले विमान में फिर से सवार हुए और शाम पांच बजे विमान ने उड़ान भरी. शहर के पुलिस आयुक्त एन. शशि कुमार ने कहा कि देर रात तक कोई शिकायत दर्ज नहीं की गयी क्योंकि यह दो दोस्तों के बीच सुरक्षा को लेकर मैत्रीपूर्ण ढंग से हो रही बातचीत थी.
Source : News18
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38 साल बाद मिला शहीद चंद्रशेखर का पार्थिव शरीर, हल्द्वानी में होगा अंतिम संस्कार

15 अगस्त को पूरा देश आजादी की 75वीं सालगिरह अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है. वहीं, सियाचिन पर अपनी जान गंवाने वाले एक शहीद सिपाही का पार्थिव शरीर 38 साल बाद उनके उत्तराखंड के हल्द्वानी स्थित घर आ रहा है. हम बात कर रहे हैं 19 कुमाऊं रेजीमेंट के जवान चंद्रशेखर हर्बोला की.

शहीद चंद्रशेखर की पत्नी
दरअसल, 29 मई 1984 को सियाचिन में ऑपरेशन मेघदूत के दौरान हर्बोला की जान चली गई थी. बर्फीले तूफान में उस दौरान 19 जवान दब गए थे, जिनमें से 14 के शव बरामद कर लिए गए थे. लेकिन पांच जवानों के शव नहीं मिल पाए थे. इसके बाद सेना ने पत्र के जरिए घरवालों को चंद्रशेखर के शहीद होने की सूचना दी थी. उसके बाद परिजनों ने बिना शव के चंद्रशेखर हर्बोला का अंतिम क्रिया-कर्म पहाड़ी रीति रिवाज के हिसाब से कर दिया था.
डिस्क नंबर से हुई पहचान
इस बार जब सियाचिन ग्लेशियर पर बर्फ पिघलनी शुरू हुई, तो खोए हुए सैनिकों की तलाश शुरू की गई. इसी बीच, आखिरी प्रयास में एक और सैनिक लॉन्स नायक चंद्रशेखर हर्बोला के अस्थि शेष ग्लेशियर पर बने एक पुराने बंकर में मिले. सैनिक की पहचान में उसके डिस्क ने बड़ी मदद की. इस पर सेना कर दिया हुआ नंबर (4164584) अंकित था.
28 की उम्र में छोड़ गए थे बिलखता परिवार
बता दें कि 1984 में सेना के लॉन्स नायक चंद्रशेखर हर्बोला की उम्र सिर्फ 28 साल थी. वहीं, उनकी बड़ी बेटी 8 साल और छोटी बेटी करीब 4 साल की थी. पत्नी की उम्र 27 साल के आसपास थी.
राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार
अब 38 साल बाद शहीद चंद्र शेखर का पार्थिव शरीर सियाचिन में बर्फ के अंदर दबा हुआ मिला, जिसे 15 अगस्त यानी आजादी के दिन उनके घर पर लाया जाएगा और पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया जाएगा.
चेहरा तक देख नहीं सकी थी पत्नी
शहीद चन्द्रशेखर हर्बोला के पत्नी शांति देवी (65 साल) के आंखों के आंसू अब लगभग सूख चुके हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि उनके पति अब इस दुनिया में नहीं हैं. गम उनको सिर्फ इस बात का था कि आखिरी समय में उनका चेहरा नहीं देख सकी.
वहीं, उनकी बेटी कविता पांडे (48 साल) ने बताया कि पिता की मौत के समय वह बहुत छोटी थीं. ऐसे में उनको अपने पिता का चेहरा याद नहीं है. अब जब उनका पार्थिव शरीर उनके घर पहुंचेगा, तभी जाकर उनका चेहरा देख सकेंगे.
चित्रशाला घाट पर क्रिया-कर्म
भतीजे ने बताया कि चाचा चंद्रशेखर हर्बोला की सियाचिन में पोस्टिंग थी. उस दौरान ऑपरेशन मेघदूत के दौरान बर्फीले तूफान में 19 जवानों की मौत हुई थी, जिसमें से 14 जवानों के शव को सेना ने खोज निकाला था, लेकिन 5 शव को खोजना बाकी था. एक दिन पहले की चन्द्रशेखर हर्बोला और उनके साथ एक अन्य जवान का शव सियाचिन में मिल गया है. अब उनके पार्थिव शरीर को धान मिल स्थित उनके आवास पर 15 अगस्त यानी आज लाया जाएगा है. जिनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ रानी बाग स्थित चित्रशाला घाट में होगा.
Source : Aaj Tak
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आज 15 अगस्त पर जानिए ध्वजारोहण और झंडा फहराने में क्या है अंतर?

आज देशभर में आजादी का 75वां साल धूमधाम से मनाया जा रहा है और इसी खुशी को दोगुना करने के लिए भारत सरकार ने ‘हर घर तिरंगा’ कैंपेन शुरू किया है. इसके तहत आम से लेकर खास हर कोई अपने घर पर तिरंगा लगा रहा है. वहीं, इस जश्न को मनाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने कई तैयारियां की है.
देश का राष्ट्रीय ध्वज आन-बान और शान का प्रतीक है. हर साल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराते हैं, लेकिन स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने में भी होते हैं. दो तरह से झंड़े को फहराया या लहराया जाता है. पहले को ध्वजारोहण कहते हैं और दूसरे को हम ध्वज फहराना कहते हैं. आइए आजादी के 75वें स्वतंत्रता दिवस पर हम आपको बताते हैं कि इन दोनों के बीच क्या अंतर है?
ध्वजारोहण और झंडा फहराने में अंतर
देश के इन दो खास मौकों पर राष्ट्रीय ध्वज को फहराया या लहराया जाता है जिसके बीच अंतर होता है. स्वतंत्रता दिवस पर जब ध्वज को ऊपर की तरफ खींचकर लहराया जाता है, तो इसको ध्वजारोहण कहते हैं, जिसे इंग्लिश में Flag Hoisting कहते हैं. वहीं, दूसरी तरफ गणतंत्र दिवस पर ध्वज को ऊपर बांधा जाता है और उसको खोलकर लहराते हैं, इसे झंडा फहराना कहते है, जिसे अंग्रेजी में Flag Unfurling कहते हैं.
जानें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति में क्या अंतर है?
स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) के कार्यक्रम को आयोजन लाल किले पर होता है. इस खास मौके पर कार्यक्रम में देश के प्रधानमंत्री शामिल होते हैं और ध्वजारोहण करते हैं. वहीं, गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) के कार्यक्रम का आयोजन राजपथ पर होता है और कार्यक्रम में देश के राष्ट्रपति शामिल होते हैं और झंडे को फहराते हैं. प्रधानमंत्री देश के राजनीतिक प्रमुख होते हैं और राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख होते हैं.
गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति क्यों फहराते हैं झंडा?
देश का संविधान 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ था. इससे पहले देश में न तो संविधान था और न राष्ट्रपति. इसी के के कारण हर साल 26 जनवरी को राष्ट्रपति राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं.
Source : Zee News
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