पुराणों और उपनिषदों में पूजा का साकार और विविध रूप सामने आया। वहीं से शुरू हुई छठ माता की पूजा। प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण इन्हें षष्ठी देवी कहते हैं। ये बालक-बालिकाओं की अधिष्ठात्री बालदा तथा विष्णुमाया कही जाती हैं। देवी भागवत पुराण में षष्ठी देवी के महात्म्य के साथ उनकी एक कथा मिलती है।

योगी प्रियव्रत ने ब्रह्माजी की आज्ञा से विवाह किया किंतु उन्हें कोई संतान नहीं हुई। तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालनी को चारू प्रदान किया। चारुभक्षा से रानी को मृत पुत्र प्राप्त हुआ। इससे दुखी होकर राजा ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया।

तभी मणियुक्त विमान पर एक देवी प्रकट हुईं। उन्हें देखकर राजा ने पूछा, ‘हे देवी, आप कौन हैं?’ षष्ठी देवी ने कहा, ‘राजन, मैं ब्रह्मा की मानसी कन्या देवसेना हूं। मैं स्वामी कार्तिकेय की पत्नी हूं। मैं सभी मातृकाओं में विख्यात स्कंदपत्नी हूं। मूल प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कही जाती हूं। हे राजन, मैं संतानहीन को संतान, रोगी को निरोग, निर्धन को धन, कर्मवान को उनके कर्मों का फल प्रदान करती हूं।’

माता के दर्शन पाकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसी समय छठ माता की पूजा की। माता की कृपा से उनका पुत्र जीवित हो गया और माता ने ही उसका नाम सुव्रत रखा।

ऐसा कहा जाता है कि ऋषि धौम्य ने राजा शर्यति की पुत्री सुकन्या द्वारा छठ माता के व्रत की कथा द्रौपदी को सुनाई थी। इससे प्रेरित होकर बनवास काल में द्रौपदी ने अपने परिवार के कल्याण के लिए छठ माता का व्रत किया था।

सूर्य की शक्ति का एक नाम सविता भी है। इसी से यह जोड़कर देखा जाता है कि सविता ही छठ माई हैं। एक विचार यह भी है कि सनातनी अपना हर अनुष्ठान अग्नि को साक्षी मानकर करते हैं। माता सीता ने भी पूर्वजों के पिंडदान के समय सूर्य को साक्षी बनाया था। सूर्य पंच देवों में से एक प्रकट देव हैं। इसीलिए व्रती छठ माता की पूजा-अर्चना करते समय सूर्य को ही अपना साक्ष्य बनाते हैं या सूर्य की छठी रश्मि की प्रार्थना करते हैं।

कार्तिक के महीने को सारे महीनों में श्रेष्ठ माना जाता है। इस महीने में नदी में स्नान और दीप दान करने का विशेष महत्व बताया गया है। कार्तिक महीने में सूर्य दक्षिणायन होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस समय सूर्य से ‘निरोग-किरण’ निकलती है। इसका लाभ व्रती को बेहतर स्वास्थ्य के रूप में मिलता है। यह व्रत महिलाएं और पुरुष दोनों करते हैं पर आजकल अधिकांशत महिलाएं यह व्रत करती हैं।

Source : Hindustan

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