कंपनीबाग के समीप 2010 में मेरा निर्माण शुरू हुआ।  बनकर लगभग तैयार भी हाे गया था। मेरे ऊपर सरकार के 2.86 CR रुपए खर्च हुए थे। बस साैंदर्यीकरण के कुछ काम शेष थे। शहरवासियाें काे लगने लगा था कि उनके लिए यह बेहतर पार्क हाेगा। मुझे भी यह वहम हाे गया था कि आनेवाले  समय में पार्क के रूप में यहां सर्वाधिक मेरे नाम की चर्चा हाेगी। मेरे उद्घाटन की भी जाेर-शाेर से चर्चा शुरू हाे गई थी। लेकिन, अचानक कागजी बाधाओं  के कारण काम रुक गया। फिर ताे एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर हाेते हुए मेरी फाइलें पटना तक घूमने लगीं। मामला न्यायालय तक पहुंच गया। वैसे इन 9 वर्षाें में एक बात जरूर हुई कि दाे नए साल के अवसर पर जंगल से घिरे इस पार्क काे प्रशासनिक स्तर पर खाेल कर मेरा मजाक उड़ाया गया। वाे भी तब जबकि, शहर की करीब 4.85 लाख की आबादी  के लिए अब तक सिर्फ एक जुब्बा सहनी पार्क है। उसकी भी हालत अधिकतर खराब ही रहती है। सिटी पार्क बन जाने से शहरवासियाें काे सुकून के लिए एक अच्छी जगह मिल सकती है।

  • 2010 में मुख्यमंत्री शहरी विकास योजना के तहत बनना शुरू हुआ
  • 2.86 करोड़ रुपए अब तक इस पार्क पर सरकार के हाे चुके खर्च
  • 4.85 लाख शहर की आबादी  पर अभी एकमात्र है जुब्बा सहनी पार्क

…और करीब 9 वर्ष बाद भी एक ताे लाेग इस पार्क में आते  नहीं। जाे कुछेक लाेग सुबह में आते  भी ताे दाे बात सुना जाते हैं कि यह कैसा पार्क है, जाे आमलोगों  के लिए पूरी तरह उपलब्ध हाेने के पहले जीर्ण-शीर्ण हाे गया। वैसे भी मुझे सुबह में कुछेक घंटे के लिए ही खाेला जाता है। उस समय मार्निंग वाक करनेवाले कुछ लाेग जरूर आ  जाते हैं। इसके अलावा अधिकतर समय मेन गेट पर बड़ा-सा ताला ही लटका रहता है। इसे देख कर लाेग यह भी कहते हैं कि न जाने इस पार्क काे किसकी नजर लग गई। कुछ लाेग कहते कि इसके फाइल की अटैची ही काेई साहब ले गए। बता दें कि मेरा निर्माण शुरू हाेने से अब तक चार डीएम बदल गए। पार्क की फाइल हाकिमाें के टेबल पर पड़ी रही। लाेगाें काे अब तक शीघ्र पार्क खाेले जाने का आश्वासन  ही मिलता रहा है। लेकिन, अब ताे पार्क में बच्चाें के मनाेरंजन के लिए बनाई गई बाघ-शेर-डायनासाेर की आकृतियां  टूटने लगी हैं। किसी का धर ताे किसी का सिर बचा है। हमेशा ताला लगे रहने व अनदेखी से फूल-पत्ते भी सूखने लगे हैं। अब हाकिमाें से मेरा सवाल है कि 9 वर्षाें से मैंने यातनाएं झेली हैं, मुझे अब तक सिर्फ अस्वासन  की घुटी पिलाई गई है, आखिर  मेरा वनवास कब खत्म हाेगा?

इस तरह झेलता रहा उपेक्षा का दंश

  • 2010 में मेरा निर्माण शुरू हुआ,उद्घाटन के करीब पहुंचा ताे काम ही रोक दिया गया
  • फिर दफ्तर-दर-दफ्तर फाइल घूमने लगी, मामला अदालत तक पहुंच गया
  • टूटने लगी हैं बच्चाें के मनाेरंजन के लिए बनाई गईं बाघ और शेर की आकृतियां
  • हमेशा ताला लगा रहता है अनदेखी के कारण अब ताे फूल-पत्ते भी सूखने लगे हैं
  • एक ताे कुछेक लाेग ही यहां पर आते, वाे भी सुना जाते दाे बात
  • कहते- यह कैसा पार्क है, जाे बनने के पहले जीर्ण-शीर्ण हाे गया

होनी थी ये व्यवस्था, जिनमें अधिकतर हो चुके थे काम

  • म्यूजिकल फाउंटेन
  • सुंदर रनिंग रीवर
  • मिनी चिड़ियाघर
  • सुविधायुक्त कैंटीन
  • ओपेन थिएटर
  • भूल-भुलैया
  • पाथ वे और  बेंच
  • विभिन्न तरह के झूले
  • पार्क के भीतर रोड

डीएम ने जगाई आस, कहा-दाे माह में लोग उठा सकेंगे लाभ

सिटी पार्क काे लेकर न्यायिक प्रकिया समाप्त हाे गई है। पूरे प्राेजेक्ट की फाइल देखने के बाद, मैं पार्क पहुंच कर जायजा भी ले चुका हूं। दाे माह में रेनाेवेशन के साथ सिटी पार्क शहरवासियाें के लिए खाेल दिया  जाएगा। -अलोक  रंजन घाेष, डीएम।

Input : Dainik Bhaskar 

Report by Lalitanshu

 

 

 

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