भारतीय भाषाओं का पहला समृद्ध उपन्यास चंद्रकांता, जिसने बिहार से निकलकर हिंदी की किस्मत बुलंद कर दी। देवकीनंदन खत्री ने यूपी के चुनार गढ़, चकिया और नौगढ़ से लेकर बिहार के कैमूर और बराबर की पहाड़ियों तक तिलिस्म, अय्यारी, चमत्कार और जालसाज हरकतों का ऐसा जाल बुना कि अन्य भाषाओं के लोग भी चंद्रकांता पढ़ने के लिए हिंदी भाषा की ओर मुखातिब होने लगे। पिछले सवा सौ साल के दौरान शायद ही कोई ऐसा साक्षर या निरक्षर व्यक्ति होगा, जिसने चंद्रकांता को पढ़ा, सुना या देखा नहीं होगा। वर्ष 1888 में चंद्रकांता का प्रकाशन काशी के हरि प्रकाश प्रेस में हुआ था। तब देवकीनंदन की उम्र महज 27 वर्ष थी। जाहिर है, समस्तीपुर के पूसा में 29 जून 1861 को जन्मे देवकीनंदन के दिमाग में चंद्रकांता का प्लॉट उस वक्त आया, जब वह बिहार के टिकारी स्टेट में दीवान हुआ करते थे। उनकी युवावस्था (18 से 26 वर्ष) टिकारी में बीती थी। लेखक की इतनी कम उम्र में उसकी रचना में इतनी रवानी, शिल्प-शैली इतनी सहज, पात्र इतने सजीव, बुनावट इतनी जटिल और कल्पना का फलक इतना विराट है कि चंद्रकांता के मुकाबले की रचना हंिदूी साहित्य में अभी तक असंभव है। वह हंिदूी के पहले तिलिस्मी लेखक थे। दो-दो स्टेट के राजाओं से नजदीकी रिश्ते और राजमहलों से बावस्ता होने के चलते उनके उपन्यास में दरवाजों, झरोखों, खिड़कियों, सुरंगों और सीढ़ियों में भी रहस्य-रोमांच की दास्तान है। सुनसान अंधेरी और खौफनाक रातों में मठों-मंदिरों के खंडहरों का ऐसा वर्णन है कि शब्द-शब्द में रफ्तार है।

  • सवा सौ साल के दौरान शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसने चंद्रकांता को पढ़ा-सुना नहीं होगा
  • समस्तीपुर के पूसा में 29 जून 1861 को हुआ था देवकीनंदन खत्री का जन्म
  • चंद्रकांता का प्लॉट देवकीनंदन के दिमाग में टिकारी प्रवास के दौरान आया था

इनपुट : दैनिक जागरण

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