ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, यह छठ पर्व कथा इस तरह है:
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प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र राजा प्रियव्रत को कोई संतान नहीं थी, इसके कारण वह दुखी रहते थे. महर्षि कश्यप ने राजा से पुत्रेष्टि यज्ञ कराने को कहा. राजा ने यज्ञ कराया, जिसके बाद उनकी महारानी मालिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया. लेकिन दुर्योग से वह शिशु मरा पैदा हुआ था. राजा का दुख देखकर एक दिव्य देवी प्रकट हुईं. उन्होंने उस मृत बालक को जीवित कर दिया.
देवी की इस कृपा से राजा बहुत खुश हुए. उन्होंने षष्ठी देवी की स्तुति की. ऐसी मान्यता है कि इसके बाद ही धीरे-धीरे हर ओर इस पूजा का प्रसार हो गया.ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में बताया गया है कि सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को देवसेना कहा गया है. प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक प्रचलित नाम षष्ठी है.
षष्ठी देवी को ब्रह्मा की मानसपुत्री भी कहा गया है. पुराणों में इन देवी का एक नाम कात्यायनी भी है. इनकी पूजा नवरात्र में षष्ठी तिथि को होती है.
षष्ठी देवी को ही स्थानीय बोली में छठ मैया कहा गया है, जो नि:संतानों को संतान देती हैं और सभी बालकों की रक्षा करती है।
सूर्य की गिनती उन 5 प्रमुख देवी-देवताओं में की जाती है, जिनकी पूजा सबसे पहले करने का विधान है. पंचदेव में सूर्य के अलाव अन्य 4 हैं: गणेश, दुर्गा, शिव, विष्णु. (मत्स्य पुराण)पद्मपुराण में इस बारे में विस्तार से बताया गया है. इसमें कहा गया है कि सूर्य की उपासना करने से मनुष्य को सभी तरह के रोगों से छुटकारा मिल जाता है. जो सूर्य की उपासना करते हैं, वे दरिद्र, दुखी, शोकग्रस्त और अंधे नहीं होते.
शास्त्रों में भगवान सूर्य को गुरु भी कहा गया है. पवनपुत्र हनुमान ने सूर्य से ही शिक्षा पाई थी. श्रीराम ने आदित्यहृदयस्तोत्र का पाठ कर सूर्य देवता को प्रसन्न करने के बाद ही रावण को अंतिम बाण मारा था और उस पर विजय पाई थी.
श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था, तब उन्होंने सूर्य की उपासना करके ही रोग से मुक्ति पाई थी. सूर्य की पूजा वैदिक काल से काफी पहले से होती आई है.
बिहार के औरंगाबाद जिले के देव में प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है, जहां सालभर दूर-दूर से लोग मनोकामना लेकर और दर्शन करने आते हैं. खास तौर से कार्तिक और चैत महीने में छठ के दौरान व्रत करने वालों और श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है.
इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि बिहार में सूर्य पूजा सदियों से प्रचलित है. सूर्य पुराण में इस देव मंदिर की महिमा का वर्णन मिलता है. ऐसे में अगर इस प्रदेश के लोगों की आस्था सूर्य देवता में ज्यादा है, तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है.
सुबह सूर्य की आराधना करने से स्वास्थ्य बेहतर होता है। सूर्य मुख्य रुप से तीन वक्त सबसे प्रभावशाली होता हैप्रातः , मध्यान्ह और सायंकाल। मध्यान्ह की आराधना करने से नाम और यश की प्राप्ती होती है और सांयकाल की आराधना सम्पन्नता प्रदान करती है।
जो लोग अस्ताचलगामी सूर्य की आराधना करते है उन्हें प्रात: काल की उपासना करना भी जरुर करनी चाहिए।
उगते सूर्य को अर्घ्य देने की रीति तो कई व्रतों और त्योहारों में है लेकिन डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा आमतौर पर केवल छठ व्रत में है.
कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की षष्ठी को ढलते सूर्य को अर्घ्य क्यों दिया जाता है. आइए जानते हैं….
सुबह, दोपहर और शाम तीन समय सूर्य देव विशेष रूप से प्रभावी होते हैं.
सुबह के वक्त सूर्य की आराधना से सेहत बेहतर होती है. दोपहर में सूर्य की आराधना से नाम और यश बढ़ता है. शाम के समय सूर्य की आराधना से जीवन में संपन्नता आती है.
शाम के समय सूर्य अपनी दूसरी पत्नी प्रत्यूषा के साथ रहते हैं.
इसलिए प्रत्यूषा को अर्घ्य देना तुरंत लाभ देता है।
ज्योतिष के जानकारों की मानें तो अस्त होते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा इंसानी जिंदगी हर तरह की परेशानी दूर करने की शक्ति रखती है. फिर समस्या सेहत से जुड़ी हो या निजी जिंदगी से. ढलते सूर्य को अर्घ्य देकर कई मुसीबतों से छुटकारा पाया जा सकता है.
इन लोगों को अस्त होते सूर्य को ज़रूर अर्घ्य देना चाहिए-
जो लोग बिना कारण मुकदमे में फंस गए हों.
जिन लोगों का कोई काम सरकारी विभाग में अटका हो.
जिन लोगों की आँखों की रौशनी घट रही हो.
जिन लोगों को पेट की समस्या लगातार बनी रहती हो.
जो विद्यार्थी बार-बार परीक्षा में असफल हो रहे हों.