सात साल पहले दिल्ली के निर्भया कांड और अब हैदराबाद के रे’प-मर्’डर केस पर छिड़ी बहसों के बीच एक ही समाधान समझ में आता है कि सभी पी’ड़ित लड़कियों, परिजनों को एकजुट कर कम से कम एक बार ऐसा जोरदार आंदोलन छेड़ा जाए कि पूरे मर्दवादी दौर की सिंघासन हिल उठें और सरकारें, न्यायपालिका भी नए सिरे से पहल करें।
ऐसे में सवाल उठता है कि सरकारों का ये हाल है तो कैसे बचेगी बेटियों की आबरू और जान? बेटियों के साथ है’वानियत के इस दौर में कई सवाल उनसे भी बनते हैं, जिन पर भारत के हर नागरिक की सुरक्षा की जिम्मेदारी है। लापरवाहियों का आलम ये है कि केंद्र सरकार ने महिला सुरक्षा से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं के लिए ‘निर्भया फंड’ में चार हजार करोड़ रुपए राज्यों को जारी किए, जिसका ज्यादातर राज्यों ने न तो इस्तेमाल किया, केंद्र को इसकी वजह बताई। केंद्रीय गृहमंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इसी योजना में ‘इमरजेंसी रेस्पांस स्पोर्ट सिस्टम’ (आकस्मिक प्रतिक्रिया सहायता प्रणाली-ईआरएसएस) के लिए तीन सौ करोड़ रुपए का भी किसी भी राज्य ने सौ फीसद इस्तेमाल नहीं किया।
अब आइए, बेटियों के मुतल्लिक एक दूसरे तरह के वाकये से रूबरू होते हैं। उत्तरकाशी (उत्तराखंड) के में 133 गांवों में पिछले तीन महीनों में 2016 बच्चों ने जन्म लिया है, लेकिन उनमें एक भी बेटी नहीं। इस घटते लिंगानुपात ने ‘कन्या भ्रूण हत्या निषेध’ और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ नारे समेत तमाम अभियानों पर काली स्याही पोत दी है। सरकारी आंकड़ों में इस भयावह स्थिति के खुलासे से हड़कंप मचा हुआ है। गंगोत्री के विधायक गोपाल रावत और जिलाधिकारी डॉ.आशीष चौहान के नेतृत्व में हरकत में आए जिला प्रशासन ने इसकी पड़ताल शुरू कर दी है।
आइए, एक और हिंसा और यौन शोषण के ताज़ा सिलसिले पर नज़र डालते हैं। हैदराबाद रेप-हत्या के मामले में संसद में जानी-मानी अदाकारा जया बच्चन तथा टीएमसी सांसद मिमी चक्रव्रती ने जब कहा कि ऐसे हैवानों को सड़क पर लिंच कर देना चाहिए तो पाकिस्तानी लेखक इफ़त हसन रिज़वी, भारतीय पत्रकार सुचेता दलाल आदि विरोध करने लगे। डीएमके सांसद पी. विल्सन चाहते हैं कि कोर्ट बलात्कारियों को नपुंसक बनाने के फैसले दे। फिल्म निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा ने जब लिखा कि डर के ज़रिए ही समाज में बदलाव लाया जा सकता है तो फ़िल्मकार विक्रमादित्य मोटवाने, गायिका सोना महापात्रा ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा कि ‘पहले तो आप महिला विरोधी फ़िल्में बनाना बंद कीजिए।’ फ़रहान अख़्तर लिखते हैं- ‘निर्भया के चार बलात्कारी सजा के सात साल बाद भी ज़िंदा हैं।
न्याय का पहिया काफ़ी धीमा है।’ ये घटनाक्रम अलग-अलग तरह के हैं, लेकिन इनमें एक संदेश कॉमन है कि मानवाधिकार की बातें, नारे, बहसें, गुहारें, कोशिशें चाहे जितनी भली लगें, हमारे देश की बेटियां डंके की चोट पर बर्बर वक़्त के हवाले हैं। बाकी सबके लिए हिंदुस्तान इतना ताकतवर है, फिर बेटियों की सुरक्षा के मामले में ही इतना निहत्था, असहाय और कथित तौर पर लापरवाह भी क्यों? ऐसे बर्बर दौर में भी ‘मार्टियर्स ऑफ़ मैरिज’ डॉक्युमेंट्री बना रही 31 वर्षीय दीपिका नारायण भारद्वाज के भी कुछ अलग ही राग हैं।
इस समय वह देशभर में घूमकर ऐसे मामलों की पड़ताल कर रही हैं। ‘व्यक्तिगत स्तर पर भयावह अनुभव’ झेलने के बाद वह 2012 से इस विषय पर शोध कर रही हैं। दिल्ली महिला आयोग का भी कहना है कि अप्रैल 2013 से जुलाई 2014 के बीच दर्ज रेप के कुल मामलों में से 53.2 प्रतिशत झूठे हैं।
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