झारखंड की सि’यासत में 19 सालों से चली आ रही परंपरा इस बार भी नहीं टूटती हुई दिख रही है। रुझानों के अनुसार, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कांग्रेस, झामुमो और आरजेडी के महागठबंधन की राज्य में सरकार बनने जा रही है।
वर्ष 2000 में आस्तित्व में आए झारखंड के 19 साल के राजनीतिक इतिहास में कोई भी सत्ताधारी पार्टी सत्ता में वापसी नहीं कर सकी हैं। हालांकि राज्य के पहले गैर- आदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास झारखंड के पहले मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। यहां जानें रुझानों के महागठंन की जीत के 10 बड़े कारण-
1. महागठबंधन को मिला सत्ता विरोधी लहर का फायदा
झारखंड चुनाव में विपक्षी पार्टियां रघुवर दास सरकार की डोमिसाइल पॉलिसी, पिछड़ा आरक्षण, भ्रष्टाचार, बढ़ती बेरोजगारी, विस्थापन, मोमेंटम झारखंड का कथित तौर पर फेल होना, शिक्षा व स्वास्थ्य की लचर व्यवस्था और कुपोषण जैसे मुद्दों को सफलतापूर्वक उठा पाई। कांग्रेस और झामुमो इन मुद्दों को लेकर लगाकर रघुवर सरकार के कठघरे में खड़ा करती रही। कथित कंबल घोटाले से भी रघुवर सरकार की काफी किरकिरी हुई।
2. बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भर होना
2019 लोकसभा चुनाव में झारखंड की कुल 14 में 12 सीटें बीजेपी ने जीती थी। लेकिन पिछले कुछ चुनावों में विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में वोट देने का पैटर्न अलग-अलग रहा है। जाहिर था कि रघुवर दास की राह इस बार आसान नहीं थी। इस पैटर्न को हरियाणा और महाराष्ट्र से भी समझा जा सकता है जहां बीजेपी 2014 के नतीजे दोहराने में नाकाम रही थी।
बीजेपी ने जो गलती महाराष्ट्र में की थी वो झारखंड में भी कर दी। राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की कामयाबी को राज्य बीजेपी ईकाई राज्य में नहीं भुना पाई। केंद्रीय स्तर पर मोदी का करिश्माई नेतृत्व का फायदा राज्य के नेता नहीं उठा सके। राज्य के नेता रणनीति, प्रचार, अपनी बात व योजनाओं का प्रचार जनता तक पहुंचाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भर रहे।
3. स्थानीय मुद्दों और आदिवासियों की बात करना
सत्तारूढ़ बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी के बड़े नेताओं का झारखंड के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों को उछालना मतदाताओं को नागवार गुजरा। मतदाता उदासीन नजर आए। राम मंदिर, एनआरसी, सीएए, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने जैसे राष्ट्रीय मामले विधानसभा चुनाव में उछालने का दांव बीजेपी का उल्टा पड़ गया। वहीं, दूसरी तरफ एकजुट महागठबंधन चुनाव प्रचार के दौरान लगातार स्थानीय मुद्दों और आदिवासी हितों को उछालता रहा। कांग्रेस और झामुमो का चुनाव प्रचार आदिवासियों के हितों, जल जंगल जमीन के नारे, शिक्षा व स्वास्थ्य की लचर व्यवस्था, बेरोजगार, गरीब और कुपोषण पर केंद्रित रहा।
4. रोजगार की दृष्टि में कुछ खास नहीं कर पाई रघुवर सरकार
झारखंड विधानसभा 2014 में बीजेपी रोजगार, विकास और स्थाई सरकार के वादे के साथ सत्ता में आई थी। लेकिन आर्थिक मंदी ने झारखंड के पहले से पिछड़े राज्य होने के चलते अन्य राज्यों की अपेक्षा इसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के शोधकर्ताओं द्वारा तैयार किए गए मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इनडेक्स में झारखंड 2015-2016 में भारत का दूसरा सबसे गरीब राज्य था। जहां राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 28 है वहीं यह झारखंड में 46 फीसदी था। औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के आउटपुट में कमी आई। खनन क्षेत्र में गिरावट नजर आई। 2014 में बीजेपी राज्य में ज्यादा से ज्यादा निवेश खींचकर रोजगार पैदा करने के इरादे से सत्ता में आई थी। पिछले पांच सालों में निजी निवेश में कमी आई। सेंटर ऑफ मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनामी (सीएमआईई) के प्रोजेक्ट ट्रेकिंग डेटाबेस के मुताबिक 2018-19 में झारखंड में 44 फीसदी निवेश परियोजनाएं रुक गईं। रोजगार में कमी, राज्य में निवेश न आना, विकास परियोजनाओं का रुक जाने का फायदा महागठबंधन को चुनावों में मिला।
5. आदिवासियों में थी रघुवर सरकार के प्रति नाराजगी
रघुवर दास की सरकार ने सालों पुराने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना काश्ताकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) में संशोधन की कोशिशें की थी। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन और उद्योगपतियों के लिए लैंड बैंक बनाने जैसी कोशिशें भी आदिवासियों की चिंता और आक्रोश का कारण बनी। रघुवर सरकार के फैसलों से जमीन अधिग्रहण करना आसान हो गया। काश्तकारी कानून में बदलाव पर भले सरकार विवाद के बाद रुक गई लेकिन आदिवासियों के मन में यह बात घर कर गई है कि रघुबर दास आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासियों को देना चाहती है। इसका गुस्सा आदिवासियों ने वोट की चोट से दिया।
6. हेमंत सोरेन को सीएम का चेहरा बनाने का मिला फायदा
झारखंड विधानसभा चुनाव में इस बार मतदान से पहले ही सत्ता के प्रमुख दावेदार दोनों पक्षों (बीजेपी) और महागठबंधन ने अपने अपने अपने सीएम उम्मीदवार घोषित कर दिए थे। एक तरफ आदिवासी (हेमंत सोरेन) चेहरा था और दूसरी तरफ गैर-आदिवासी चेहरा (रघुवर दास)। 2014 के चुनाव में बीजेपी बिना सीएम चेहरे के चुनाव में उतरी थी। झारखंड की 26 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। 81 सीटों वाली झारखंड विधानसभा में 28 सीटें आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं। हेमंत सोरेन को पहले से सीएम पद का चेहरा बनाने से महागठबंधन को फायदा मिला।
7. आजसू से दोस्ती टूटी, कोई गठबंधन नहीं
बीजेपी की आजसू से 20 साल पुरानी दोस्ती टूट गई। सत्ता विरोधी लहर के बावजदू वह गैर आदिवासी सीएम चेहरे के साथ चुनावी मैदान में बिना गठबंधन चुनवी अखाड़े में उतरी। 2014 में बीजेपी ने AJSU के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन में 30 फीसदी आदिवासी वोट (एसटी) और 13 एसटी आरक्षित सीटें हासिल की थी। ऐसे में आदिवासी वोट बीजेपी के खिलाफ गोलबंद हुआ।
8. एकजुट महागठबंधन
महागठबंधन शुरू से एकजुट नजर आया। सीट बंटवारें पर भी जनता के बीच कोई आपसी फूट जैसा संदेश नहीं गया। महागठबंधन के पहले बन जाने से उसे चुनाव प्रचार, रणनीति, जनता तक अपनी बात पहुंचाने का काफी समय मिला। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी चुनावी मैदान में आजसू या अन्य किसी दल के साथ गठबंधन में उतर रही है या नहीं, इस फैसले में काफी देरी हो गई। प्रत्याशियों के चुनाव में देरी से रणनीति उतनी मजबूत नहीं बन पाई जितनी एकजुट विपक्ष को हराने के लिए बननी चाहिए।
9. एनआरसी और सीएए के खिलाफ बवाल बीजेपी को भारी पड़ा
आखिरी तीन चरण में सीएए और एनआरसी के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन का नुकसान उठाना पड़ा। जब सीएए एनआरसी का मुद्दा देश में प्रकाश में आया तो तीन चरण के चुनाव होना बाकी थे। अंतिम चरण में सबसे ज्यादा 72 फीसदी वोट पड़े थे। अशांत माहौल का फायदा महागठबंधन को मिला।
10. बागी नेताओं ने काटे बीजेपी के वोट
सीट बंटवारे के मुद्दे पर नाराज होकर बीजेपी के कद्दावर नेता सरयू राय ने रघुवर दास के खिलाफ जमशेदपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ा। पार्टी ने सरयू राय, बड़कुवार गागराई, महेश सिंह, दुष्यंत पटेल, अमित यादव समेत 20 नेताओं को 6 साल के प्रतिबंधित कर दिया।
Input : Live Hindustan