एक बार महात्मा गाँधी से फेथ वर्ल्ड फेलोशिप ने आग्रह किया कि गाँधी जी अपने जन्मदिन पर कोई संदेश ज़रूर दें। गाँधी जी ने संदेश दिया, “अगर मैं अपने जीवन जीने के तरीके से कोई संदेश नहीं दे पाऊं, तो कलम के संदेश का कोई औचित्य नहीं है।”

150वीं महात्मा गाँधी जयंती पर बिहार में उत्पन्न स्थिति के सहारे देश के नेतृत्व वर्ग का अवलोकन काफी रुचिकर है। बिहार में जिस प्रकार की स्थिति हुई है और उस स्थिति पर सरकार का जो रवैया रहा है, उससे निकम्मेपन की मुहर तो लग ही जाती है।

उसके उलट बिहार के युवाओं ने जिस प्रकार बाढ़ में लोगों की सहायता की है, उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। उन्होंने अपने कर्म से एक मज़बूत एवं रचनात्मक संदेश दिया है।

बिहार के युवाओं ने संभाली कमान

इन युवाओं ने बताया कि सारी शक्तियों से लैस, संसाधनों की रखवाली करने वाली सरकार को जो काम करना चाहिए था, उसके नहीं होने पर लोग किस दौर से गुज़रते हैं। इन युवाओं ने दिखला दिया कि आज का युवा वर्ग किस प्रकार समाज की सहायता कर सकता है।

72 घंटे पहले विकट परिस्थिति की सूचना मिलने पर भी सरकार की तैयारी का आलम यह रहा कि शहर से पानी निकालने का पूरा प्रबंध जल जमाव के दो दिन बाद तक पूर्णतः बंद था। आपदा प्रबंधन टीम के पास पर्याप्त मात्रा में नाव तक नहीं थी, ताकि लोगों को सही सलामत बाहर निकाल लिया जाए।

एक तरफ 24 घंटे के अंदर उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने फनी तूफान से निपटने का उदाहरण पेश कर दिया था, तो वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार और उनकी सहमति से कार्य करने वाले प्रशासन 72 घंटे बाद भी पटना शहर से पानी निकास की व्यवस्था नहीं कर सकी। यह अंतर तकनीक का नहीं, बल्कि समर्पण का है।

समस्या हल नहीं करने की प्रवृत्ति

यह बात सही है कि इतना जल जमाव सिर्फ बारिश के पानी से नहीं बल्कि गंगा, गंडक एवं अन्य संलग्न नदियों में उफान के कारण हुआ था मगर क्या यह बात आपदा प्रबंधन के नियोजनकर्ताओं के लिए नई सूचना थी? और अगर एक रूटीन सूचना थी, तो समय रहते उपाय क्यों नहीं किया गया?

बिहार के किसान पिछले कई वर्षों से ग्रीष्म ऋतु में धान के बीज लगाते हैं, फिर बारिश की कमी की वजह से फसल को जलते देखते हैं, फिर अचानक बाढ़ जैसी स्थिति देखने को मिलती है। कई बार यह बाढ़ फसलों को बर्बाद कर देती है और कभी-कभी फायदे भी दे जाती है।

इस समस्या को मुख्यमंत्री भले ही प्राकृतिक आपदा बताकर बचने की कोशिश करें, हथिया का दौर बताकर भाग्य एवम श्रद्धा का मुद्दा बना दें, पर इससे समस्या हल नहीं करने की प्रवृत्ति को नहीं छुपा सकते।

कहां गायब है प्रशासन?

गंगा का जलस्तर बढ़ने से पटना शहर का जल निकास बंद होना इस बात को स्पष्ट करता है कि बिहार सरकार ने गंगा को ही पटना शहर से निकलने वाले प्रदूषित जल का गन्तव्य बना दिया। बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसे असंवैधानिक घोषित करने के बाद कहां गायब है?

इस सम्पूर्ण समस्या का अगर गहराई से विश्लेषण करें तो समस्या की जड़ में भूमि वितरण की समस्या का हल नहीं होना है। प्रतिवर्ष बाढ़ और सुखाड़ दोनों झेलने वाले बिहार को जल संरक्षण एवं जल वितरण हेतु आधारभूत संरचना की अनुपस्थिति में रहना पड़ता है

पटना शहर के कई सार्वजिक स्थानों के निर्माण ने जल निकायों की समाप्ति कर शहर की जल धारिता को ज़बरदस्त झटका दिया है। पोखरे, झील इत्यादि जब भर दिए गए तो पानी उनके अंदर जाने के बजाय अब लोगों के घर में जा रहा है। दूसरी तरफ ज़बरदस्त जनसंख्या विस्फोट के साथ मकानों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है।

प्लानिंग की कमी

पटना सहित अन्य शहरों में अकसर यह देखा जा रहा है कि लोग सड़कों के लिए जगह छोड़ना ही नहीं चाहते (जल निकास के लिए जगह तो दूर की बात हो जाती है); बमुश्किल कुछ जगह छोड़ते भी हैं, तो पहले या दूसरे माले पर उस स्थान को ज़मीन के ऊपर कब्ज़े में ले लेते हैं। ऐसे में गलियों में काफी संकीर्णता आ जाती और किसी भी तरीके के आपातकालीन मुहिम को ऐसे स्थान पर अंजाम देना बहुत मुश्किल होता है।

पर प्रश्न यह है कि क्या ये मकान सरकारी आदेश का उल्लंघन करते हैं? यदि करते हैं तो सरकार को किस बात का डर है? वह कड़ी कार्यवाही क्यों नहीं करती? और अगर ये उल्लंघन नहीं करते तो सरकार की प्लानिंग एजेंसी, प्लानिंग के नाम पर क्या कर रही है?

गाँवों में देखें तो बिहार की कृषि लगभग पूर्णतः वर्षा जल पर आधारित है। ऐसे में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि सरकार नहर क्यों नहीं बना रही? सरकार जल-निकायों के निर्माण कर जल संरक्षण क्यों नहीं कर रही? सरकार जल प्रबंधन को नगण्य क्यों मान रही है?

गर्मियों में बिहार का जल स्तर बहुत तेजी से नीचे जाता है पर दुर्भाग्यवश जब बिहार को पानी मिलता है तो वह उसे संरक्षित नहीं करता। क्या यह सरकार की प्राथमिक प्राथमिकता नहीं है? क्या ये नागरिक खुद कर सकते हैं वो भी तब जब सरकार ने कानून व्यवस्था इतनी लचर बना रखी है की प्राइवट एजेंसियां बिहार में निवेश करना ही नहीं चाहती।

केजरीवाल के बयान पर नाखुशी के कुछ खास मायने नहीं

भारतीय संविधान ने भारत मे निवास करने वाले हर इंसान को युक्तियुक्त निर्बन्धनों के साथ यह अधिकार दिए हैं कि वह देश मे जहां चाहे वहां विचरण कर सकता है, बस सकता है एवम सार्वजिक सुविधाओं का लाभ ले सकता है, परंतु भारतीय संविधान स्थानीय स्वशासन को भी अनिवार्य करता है।

अर्थात भारतीय संविधान अगर नागरिकों को यह आज़ादी देता है कि वह भारत मे कहीं भी अपना जीवन यापन करे, तो वह सरकारों एवम नागरिकों को यह भी इंगित करता है कि नागरिक यह सुनिश्चित करे कि हर स्तर की सरकार अपने शासन/निवास क्षेत्र को इस प्रकाश विकसित करे की वहां गरिमामयी जीवन यापन संभव हो सके।

क्या नागरिक समाज ऐसा कह सकता है कि उन्होंने अपने मूल स्थान को विकसित करने हेतु कार्य किया है? ऐसे में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के हालिया बयान को लेकर बिहार की कुछ जनसंख्या द्वारा प्रदर्शित नाखुशी के कुछ खास मायने नहीं हैं।

हालांकि भावनात्मक तकाजे पर अगर देखें तो दिल्ली की अर्थव्यवस्था में बिहारियों का जितना योगदान है, एक मुख्यमंत्री होने के नाते श्रीमान केजरीवाल जी को यह बयान सार्वजनिक नहीं बल्कि मुख्यमंत्री कॉउंसिल में बिहार सरकार को सामने बिठाकर कहनी चाहिए थी।

 

स्वास्थ्य, शिक्षा, आधारभूत संरचना एवम अर्थव्यवस्था का विकास बिहार में काफी हद तक थम गया है। सरकार अपने कार्यशैली में बिल्कुल तब्दीली नहीं ला रही। इसका परिणाम यह है कि बिहार में संस्थानों का विकास नहीं हो रहा और सतत विकास की एक लंबी बहुआयामी योजना का निर्माण असंभव दिखता है।

नीतीश कुमार ने अपने पहले एवम दूसरे कार्यकाल में जो कार्य किया था, आज सिर्फ उसके परिणाम का आनंद उठा रहे हैं। विकसित बिहार हेतु ऊर्जा और दृष्टि अब उनके अंदर धूमिल हो चुकी है। ऐसे में ज़रूरत महसूस होती है कि इससे पहले की बिहार दिशाहीन एवं अनिर्णायक अवस्था में जाए, बिहार की बागडोर अब युवाओं के हाथ मे आए। जिससे सरकार की कार्यशैली में तब्दीली आए, साक्ष्य के आधार पर नीतिगत फैसले लिए जाएं, एक दूरदर्शी महत्वाकांक्षी योजना बने एवम बिहार देश की विकास को नेतृत्व प्रदान कर सके।

रिपोर्ट : अंकित (YouthkiAwaaz)

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