राजनीति अब पहले जैसी नहीं रही। मुझे अाज भी याद है कि वर्ष 1962-67 में सामान्य से सामान्य आदमी भी चुनाव में खड़ा होता था तो लाेग उन्हें जात-पात से ऊपर उठकर समर्थन देते थे। उम्मीदवार की ईमानदार छवि और देश-समाज के लिए उनके विचार देखे जाते थे। उम्मीदवार एक जीप पर माइक लगाकर गांव-गांव घूमते थे और पर्चा बांटा जाता था। उस पर्चा में लिखी बाताें पर चर्चा हाेती थी कि काैन नेता क्या कह रहा है? 1967 में मैं पूर्वी चंपारण के बड़हरवा गांव में रहता था। 9वीं क्लास में पढ़ार्ई करते वक्त चुनाव में रमापति त्रिपाठी खड़े हुए थे। उस वक्त ज्यादा पार्टी भी नहीं हाेती थी। एक तरफ कांग्रेस ताे दूसरी तरफ प्रजा साेशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार मुख्य मुकाबले में हाेते थे। चुनाव में पैसे का खेल, आरोप -प्रत्याराेप, आपसी रंजिश नहीं हाेती थी। जिसे जहां वाेट देना होता था, देते थे।
1977 से पहले मुजफ्फरपुर आ गया। 1975 में इमरजेंसी लगने से लाेगाें में कांग्रेस के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा था। इसलिए विराेध में जाे भी खड़े हुए जीत गए। हमलाेग उस समय जेपी के आंदोलन से जुड़ गए थे। 1977 के चुनाव में जार्ज खड़ा हुए ताे बिना कुछ दायां-बायां देखे चुनाव में भी लग गए। मन में एक ही सवाल था। हजाराें लाेगाें की कुर्बानी के बाद देश आज़ाद हुआ ताे इस पर आंच नहीं आने देंगे। जेपी की बाताें का प्रभाव भी युवाओं पर जबरदस्त पड़ा था। इसलिए सिद्धांत के आधार पर वे कांग्रेस का विराेध कर रहे थे। नेताओं के प्रति यह विश्वास रहता था कि वे जीतने के बाद सर्व कल्याण की बात करेंगे। जार्ज फर्नांडीस काे हमलाेग देखे भी नहीं थे। विश्वास जताया ताे वे उस पर खरे उतरे। बाहर से आने के बाद पांच-पांच बार जीत की वजह भी यही थी। अब ताे स्वार्थ की राजनीति में हर तरह से गिरावट है। जात का अंकगणित और पैसा ही उम्मीदवार बनने का मापदंड हाे गया है। यह लोकतंत्र के लिए घातक है।
– जैसा कि रिटायर्ड बैंक अधिकारी डीएन त्रिवेदी ने दैनिक भास्कर काे बताया
Input : Dainik Bhaskar