बिहार: सूबे की शिक्षा व्यवस्था को लेकर राज्य सरकार अपने महत्वाकांक्षी योजनाओ के सहारे भले ही तमाम दावे कर ले, लेकिन जमीनी हकीकत तो कुछ और ही बयां करती है. कही विद्यालय में शिक्षक की कमी है, तो कही भवन की. पिने की पानी, शौंचालय और मिड डे मिल की तो बात छोर ही दीजिये.
हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक अधिकारियों के हवाले से जो जानकारी निकल कर सामने आई है, वो भी सूबे की बदहाल शिक्षा व्यवस्था का तसदीक करती है. रिपोर्ट्स के मुताबिक बिहार, छात्र-शिक्षक अनुपात में फिस्सडी है. और 38 छात्रों के मुकाबले एक शिक्षक है. जबकि, छात्र-शिक्षक अनुपात में सिक्किम का प्रदर्शन सबसे बेहतर है और वहाँ चार छात्रों पर एक शिक्षक है.
अब जरा सोचिये कि, कहीं चार छात्रों पर एक शिक्षक और कहीं 38 छात्रों पर एक शिक्षक. ऐसे हालात में अगर दोनों सूबे के बच्चो को किसी जाँच परीक्षा में आमने सामने बैठा दिया जाये, तो सिक्किम के छात्रों के मुकाबले में बिहार के बच्चे कितने देर तक टिक पाएंगे. यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि मेरा मकसद कहीं से इन बच्चों के प्रतिभा पर सवाल उठाना नहीं है. बल्कि तमाम अभावों के बावजूद ये संभव है की बिहार के छात्र बाजी मार लें, जैसा देश के तमाम प्रतिष्टित पदों के परीक्षाओं में होता भी है. लेकिन मेरा सवाल यह है कि बगैर किसी कसूर के बिहार के छात्र इन अभावों को क्यों अपना नियति मान लें.
यकीन मानिये छात्र-शिक्षक अनुपात का पैमाना तो बिहार के बदहाल शिक्षा स्थिति की एक बानगी भर है. न जाने बिहार के प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक के छात्र ऐसे कितने अभावों से दिन-रात गुजरते है. बावजूद इसके, इनके समस्याओ को न तो सरकार तरजीह देती है और न ही मीडिया. ऐसा नहीं है कि इनकी संख्या कम है, हजारो से लेकर लाखों के तादाद में ऐसे छात्र और युवा, सरकार का सरकार और मीडिया का मीडिया होते देखने की आस लगाये हुए है. लेकिन शिक्षा व्यवस्था से लेकर नौकरी तक के समस्याओं का गला घोट दिया गया है.
बहरहाल, रिपोर्ट्स से यह बात भी सामने आई है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की अनुसूची में प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात निर्धारित किया गया है. जिसमे, प्राथमिक स्तर पर पीटीआर का प्रावधान 30:1 और उच्च प्राथमिक स्तर पर यह अनुपात 35:1 का है. लेकिन इस नियम को भी ताक पर रखते हुए उच्च प्राथमिक स्कूलों में बिहार में छात्र शिक्षक अनुपात 39 है, जबकि प्राथमिक स्कूलों में यह आंकड़ा 38 का है.