बिहार की नीतीश सरकार राज्य के विकास के लाख दावे कर ले लेकिन आंकडें विकास के कुछ अलग ही दावे कर रहे हैं। आंकडें बता रहे हैं कि वित्तीय वर्ष 2018-2019 के दौरान राज्य पर कर्ज का बोझ बढ़कर 1 लाख 30 हजार करोड़ के करीब पहुंच चुका है। वहीं 2011-12 में राज्य पर कर्ज 50 हजार 990 करोड़ था। इन आंकडों को तुलना करने पर स्पष्ट रूप से मालूम चलता है कि पिछले 9 वर्षों में बिहार राज्य पर कर्ज को बोझ लगभग ढाई गुना बढ़ा है जो कहीं न कहीं आने वाली आगामी सरकारों को लिए परेशानी का कारण बन सकता है।

जानकारों के माने तो राज्य में विकास की गति के साथ-साथ जनसरोकार से जुड़ी योजनाओं की बढ़ने की वजह से राज्य पर कर्ज बढ़ रहा है। राज्य में निर्माण और आधारभूत संरचना समेत अन्य विकास के कार्यों के लिए राज्य सरकार की कर्ज लेने की रफ्तार बढ़ी है। जिसके कारण राज्य सरकार को हर वर्ष ब्याज की देनदारी भी बढ़ी है। बिहार सरकार जितना खर्च कर रही है उसके अपेक्षा राज्य में आय की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष राज्य पर कर्ज को बोझ बढ़ता ही जा रहा है।

बिहार में कर्ज के आंकडें

आपको बता दें कि राज्य सरकार आज से 9 साल पहले दो हजार 922 करोड़ रूपए ब्याज देने पर खर्च करती थी जो वित्तीय वर्ष 2018-19 में बढ़कर 7 हजार 326 करोड़ हो गई है। 13 वीं वित्त आयोग की अनुशंसा के अनुसार किसी भी राज्य के ऊपर कर्ज, उस राज्य के GROSS STATE DOMESTIC PRODUCT(GSDP) के 25 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। 2018-19 वित्तीय वर्ष में बिहार का GSDP पांच हजार 43 हजार करोड़ था जबकि कर्ज 1 लाख 30 हजार करोड़ है। जो बिहार के GSDP का 23.94% है।

आने वाले समय में अगर यह इसी रफ्तार से बिहार सरकार कर्ज लेती रही तो वित्त आयोग की अनुशंसा का भी बिहार उल्लंघन कर देगा। बिहार सरकार पर जितना कर्ज बढ़ेगा आखिरकार उसका बोझ आमलोगों पर ही पड़ेगा। इसलिए बिहार सरकार के लिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि वह विकास कार्यों में खर्च तो करे लेकिन इसके साथ कर्ज का भार भी खत्म करने का प्रयास करे।

Input : Live Bihar

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