टॉयलेट क्रांति के जनक और सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक- सामाजिक कार्यकर्ता बिंदेश्वर पाठक का मंगलवार को कार्डियक अरेस्ट से दिल्ली के एम्स में निधन हो गया. वे 80 साल के थे. पाठक को कई लोग ‘स्वच्छता सांता क्लॉज’ के नाम से बुलाते थे तो कोई भारत का टॉयलेट मैन. पाठक ने स्वतंत्रता दिवस पर सुबह सुलभ इंटरनेशनल कार्यालय में राष्ट्रीय ध्वज फहराया और उसके तुरंत बाद गिर गए. तुरंत एम्स ले जाया गया, जहां डॉक्टर्स ने मृत घोषित कर दिया.

सुलभ इंटरनेशनल एक सामाजिक सेवा संगठन है, जो शिक्षा के जरिए मानव अधिकारों, पर्यावरण स्वच्छता, वेस्ट मैनेजमेंट और सुधारों को बढ़ावा देने के लिए काम करता है. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत अन्य नेताओं ने पाठक के निधन पर शोक जताया है. पीएम ने कहा, डॉ. बिंदेश्वर पाठक जी का निधन हमारे देश के लिए एक गहरी क्षति है. वे एक दूरदर्शी व्यक्ति थे जिन्होंने सामाजिक प्रगति और वंचितों को सशक्त बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम किया. मोदी ने कहा, बिंदेश्वर जी ने स्वच्छ भारत के निर्माण को अपना मिशन बनाया. उन्होंने स्वच्छ भारत मिशन को जबरदस्त समर्थन दिया. हमारी विभिन्न बातचीत के दौरान स्वच्छता के प्रति उनका जुनून हमेशा दिखाई देता था.

जानिए बिंदेश्वर पाठक के बारे में…

बिंदेश्वर पाठक ने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की. संस्था का उद्देश्य खुले में शौच और अस्वच्छ सार्वजनिक शौचालयों को खत्म करना था. आगे चलकर सुलभ नाम सार्वजनिक शौचालय का पर्याय बन गया. संगठन के अग्रणी प्रयासों से सुलभ शौचालय की दिशा में क्रांतिकारी काम हुआ. सस्ते टॉयलेट सिस्टम बनाए गए, जिन्होंने लाखों लोगों के जीवन को बेहतर और स्वस्थ बनाया. सुलभ शौचालय ने स्वच्छता प्रथाओं में क्रांति लाई, जिससे लाखों लोगों को स्वच्छ और सम्मानजनक शौचालय सुविधाएं उपलब्ध हुईं.

पाठक के विजन में हाथ से मैला ढोने से जुड़े कलंक को मिटाने और उन लोगों के जीवन को ऊपर उठाने की एक व्यापक सोच थी. इस समाज को लंबे समय से हाशिए पर धकेल दिया गया था. पाठक ने विधवाओं के लिए सुलभ पहल भी शुरू की थी, जिसका उद्देश्य उन्हें सभी प्रकार के अभावों, प्रतिबंधों और अपमानों से मुक्ति दिलाना था.

’75 रुपए से सुलभ इंटरनेशनल की नींव रखी…’

बिंदेश्वर पाठक ने एक इंटरव्यू में बताया था कि जब संस्था की नींव रखने के लिए बैठे, तब 9 लोगों के बीच बातचीत हुई. उस समय सभी के लोगों की जेबों में किसी के पास 5 तो किसी के पास 7 रुपए थे. कोई 10 रुपए लिए था. एकट्ठा किए तो कुल 75 रुपए हुए. ना कोई साधन था, ना पैरवी और परिचय था. उस हालात में शुरुआत हुई. एक घर से संस्था की शुरुआत हुई. किसी भी काम के लिए विजन क्लीयर होना जरूरी है. समस्या क्या है और उसका समाधान क्या हो सकता है… उसे मिशन के तौर पर काम करने से सफलता मिलती है. काम के प्रति कमिटमेंट रहा. कैपिबिलटी भी विकसित की. हम लोगों ने मेहनत की तब दुनिया में नंबर वन हो पाए.

– पाठक कहते हैं कि हम लोगों ने कुछ समय के लिए राजनीति में काम किया, जिससे संस्था को नुकसान पहुंचा. बाद में हमने दूरी बनाई. लक्ष्य से भटकने में गड़बड़ हो जाती है. उन्होंने बताया था कि मैं पहले समाज शास्त्र का टीचर बनना चाहता था, लेकिन सपना पूरा नहीं हुआ. फिर अन्य नौकरियां करने का मौका भी मिला. अंत में ‘बिहार गांधी जन्म शताब्दी समिति’ नाम की संस्था से सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जुड़ गया. ये संस्था पटना में गांधी जी की 100वीं जयंती मनाने के लिए बनाई गई थी. वहां मैला ढोने की प्रथा पर चर्चा हुई और इसे अमानवीय बताया गया.

– गांधीजी इस प्रथा को समाप्त करने चाहते थे. संस्था के महासचिव ने मुझसे कहा कि गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए इस काम में लग जाओ. मैंने कहा- हम ब्राह्मण आदमी हैं. बचपन में हमने एक डोम आदमी को छू लिया था, तब हमारी दादी जी ने शुद्धि के लिए गाय का गोबर और मूत्र पिलाया था. माघ महीने में गंगाजल से स्नान कराया था. ऐसे में मैं ये काम कैसे कर सकता हूं? मुझसे कहा गया कि नहीं, तुम ये काम कर सकते हो. फिर मैं तीन महीने तक बैतिया में जाकर रहा. वहां बाबू जगजीवन राम के नाम से बाल्मीकि समाज की एक कॉलोनी है. समाज के बीच रहकर कार्य प्रद्धति देखी. उन लोगों को करीब से जाना. उनके साथ खाना खाया. पाठक दो घटनाओं का जिक्र करते हैं.

‘जब मैला उठाने की बात पर रोने लगी नई दुल्हन…’

वो कहते हैं कि एक नई नवेली दुल्हन थी, उसे उसकी सास मैला ढोने के लिए भेजना चाहती थी. लेकिन वो जाने को तैयार नहीं थी. रो रही थी. हमने सुना तो वहां गया. पूछा और कहा कि अगर बहू मैला नहीं ढोना चाहती है तो उसे क्यों भेज रही हैं? इस पर सास ने कहा कि अगर यह मैला नहीं ढोएगी तो आजीविका कैसे चलेगी. कल से क्या काम करेगी? अगर ये सब्जी बेचेगी तो कोई इसके हाथ से खरीदेगा नहीं. हमारे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था. समाज की जेल में निकलने की व्यवस्था ही नहीं थी. लोग एक बार मरते हैं, वो हर रोज हजार बार मरते थे. सामाजिक तिरस्कार झेलते थे. ब्राह्मण मेरे खिलाफ थे. मुझे बैठने नहीं देते थे.

‘बच्चे ने दम तोड़ा… ठानी गांधीजी के सपने को पूरा करने की कसम’

दूसरी घटना एक बच्ची से जुड़ी थी. एक बच्चे पर सांड़ ने हमला कर दिया था. सब लोग उसे बचाने के लिए दौड़े. तभी किसी ने भीड़ में कह दिया कि वो बच्चा तो बाल्मीकि कॉलोनी का रहने वाला है. इस पर लोग तुरंत दूर खड़े हो गए. हम अस्पताल ले गए, वहां बच्चे ने दम तोड़ दिया. उसी वक्त हमने कसम आई कि गांधीजी का सपना पूरा करेंगे.

‘ससुर भी रहते थे नाराज, रिश्ता भी दांव पर लग गया था…’

भारत के टॉयलेट मैन बिंदेश्वर पाठक को अपने मिशन में मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा. अपनों से भी चुनौतियां मिलीं. अक्सर मजाक भी उड़ते देखा और रिश्ते भी टूटने की नौबत आई. हालांकि, इरादे पक्के होने की वजह से पाठक डिगे नहीं और लक्ष्य की तरफ कदम आगे बढ़ाते रहे. पाठक कहते थे कि एक समय खाने के लिए पैसे नहीं थे. प्लेटफॉर्म पर सोते थे. पत्नी के जेवर बेचे. पत्नी गहने तो दे दिए. उस वक्त वो रो रही थीं. सामने मां का चेहरा आ रहा था. एक बार पिता जी को भी मां के गहने बेचने के लिए जाते देखा. लेकिन हार नहीं मानी.

– एक इंटरव्यू में पाठक ने बताया था कैसे उनके ससुर को लगा कि उनकी बेटी (पत्नी) का जीवन बर्बाद हो गया है. चूंकि वो (ससुर) किसी को यह नहीं बता पाते थे कि उनके दामाद क्या काम करते हैं. पाठक ने बताया था कि उनके ससुर डॉक्टर थे और धनी परिवार से आते थे. वो मुझसे बहुत नाराज रहते थे. क्या क्या कहते थे, वो बता नहीं कह सकते थे. एक दिन इतने नाराज हो गए और बोले कि हम आपका चेहरा तक नहीं देखना चाहते हैं. यदि हम ब्राह्मण नहीं होते तो अपनी लड़की की शादी दूसरी जगह कर देते. मैंने कहा कि मैं इतिहास का पन्ना पलटने चला हूं.

– गांधीजी का सपना पूरा करूंगा. जब तक सपना पूरा नहीं कर देंगे, तब तक चैन से नहीं बैठेंगे. अगर आप शादी की बात कर रहे हैं तो जो आपकी इच्छा हो, वो कर सकते हैं. मैं इस काम को नहीं छोड़ सकता हूं. मेरे लिए ये कहना कितना कठिन रहा होगा, ये अंदाजा लगा सकते हैं.

क्या बीता बचपन… कैसे आया आईडिया?

बिंदेश्वर पाठक का जन्म बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बाघेल गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके परिवार में पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है. कॉलेज और कुछ छोटी-मोटी नौकरियों के बाद वे 1968 में बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति के भंगी-मुक्ति (मैला ढोने वालों की मुक्ति) सेल में शामिल हो गए.

– उन्हें भारत में मैला ढोने वालों की समस्याओं से गहराई से अवगत कराया गया. उन्होंने देशभर की यात्रा की और अपनी पीएचडी थीसिस के हिस्से के रूप में हाथ से मैला ढोने वालों के साथ रहे तो उन्हें एक नई पहचान मिली. उन्होंने तकनीकी नवाचार को मानवीय सिद्धांतों के साथ जोड़ते हुए सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की.
– पाठक द्वारा तीन दशक पहले सुलभ शौचालयों को फर्मेन्टेशन प्लांट (fermentation plants) से जोड़कर बायोगैस बनाने का डिजाइन लाया गया. अब यह दुनियाभर के विकासशील देशों में स्वच्छता का पर्याय बन गया है.
– पाठक के प्रोजेक्ट की एक विशिष्ट विशेषता यह रही कि गंध मुक्त बायोगैस का उत्पादन करने के अलावा, यह फॉस्फोरस और अन्य अवयवों से भरपूर स्वच्छ पानी भी छोड़ता है जो जैविक खाद के महत्वपूर्ण घटक हैं. उनका स्वच्छता आंदोलन स्वच्छता सुनिश्चित करता है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को रोकता है. ग्रामीण समुदायों तक इन सुविधाओं को पहुंचाने के लिए इस तकनीक को अब दक्षिण अफ्रीका तक बढ़ाया जा रहा है.
– पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित पाठक को एनर्जी ग्लोब अवॉर्ड, बेस्ट प्रैक्टिस के लिए दुबई इंटरनेशनल अवॉर्ड, स्टॉकहोम वाटर प्राइज, पेरिस में फ्रांसीसी सीनेट से लीजेंड ऑफ प्लैनेट अवॉर्ड समेत अन्य पुरस्कार भी दिए गए थे.
– पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 1992 में पर्यावरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सेंट फ्रांसिस पुरस्कार से डॉ. पाठक को सम्मानित करते हुए सराहना की थी और कहा- आप गरीबों की मदद कर रहे हैं.

– 2014 में पाठ को सामाजिक विकास के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए सरदार पटेल अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. अप्रैल 2016 में न्यूयॉर्क शहर के मेयर बिल डी ब्लासियो ने 14 अप्रैल 2016 को ‘बिंदेश्वर पाठक दिवस’ के रूप में घोषित किया.
– 12 जुलाई, 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन पर पाठक की पुस्तक ‘द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड’ नई दिल्ली में लॉन्च की गई थी.
– वर्ष 1974 स्वच्छता के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ, तब 24 घंटे के लिए स्नान, कपड़े धोने और मूत्रालय (जिसे अब सुलभ शौचालय के रूप में जाना जाता है) की सुविधा भुगतान कर इस्तेमाल करने के आधार पर शुरू की गई थी.
– अब सुलभ देशभर के रेलवे स्टेशनों और मंदिर कस्बों में शौचालयों का संचालन और रखरखाव कर रहा है. भारत में इसके 1,600 शहरों में 9,000 से ज्यादा सामुदायिक सार्वजनिक परिसर मौजूद हैं. इन परिसरों में बिजली और 24 घंटे पानी की आपूर्ति है. परिसरों में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग बाड़े हैं. उपयोगकर्ताओं से शौचालय और स्नान सुविधाओं का उपयोग करने के लिए नाममात्र राशि ली जाती है.
– कुछ सुलभ परिसरों में शॉवर सुविधा, क्लोक-रूम, टेलीफोन और प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के साथ स्नानघर भी प्रदान किए जाते हैं. भुगतान और उपयोग प्रणाली सार्वजनिक खजाने या स्थानीय निकायों पर कोई बोझ डाले बिना आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करती है. परिसरों ने रहने के माहौल में भी काफी सुधार किया है. वित्त वर्ष 2020 में सुलभ ने 490 करोड़ रुपये का कारोबार किया.
– सिर्फ शौचालय ही नहीं, सुलभ ने कई व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान भी संचालित कर रहा है. जहां पर सफाईकर्मियों, उनके बेटे-बेटियों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के व्यक्तियों को मुफ्त कंप्यूटर, टाइपिंग और शॉर्टहैंड, विद्युत व्यापार, काष्ठकला, चमड़ा शिल्प, डीजल और पेट्रोल इंजीनियरिंग, कटाई और सिलाई, बेंत फर्नीचर बनाना, चिनाई का काम, मोटर चलाना जैसे विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षण दिया जाता है.
– व्यावसायिक प्रशिक्षण देने का उद्देश्य उन्हें आजीविका के नए साधन देना, गरीबी दूर करना और समाज की मुख्यधारा में लाना है. हाथ से मैला ढोने वालों के बच्चों के लिए दिल्ली में एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल स्थापित करने से लेकर वृंदावन में परित्यक्त विधवाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने और राष्ट्रीय राजधानी में शौचालयों का एक संग्रहालय स्थापित करने तक की दिशा में काम किया गया है.

संग्रहालय भी बनवाया…

बिंदेश्वर पाठक ने एक बार कहा था कि मैडम तुसाद का दौरा करने के बाद उन्होंने शौचालयों का एक संग्रहालय स्थापित करने के बारे में सोचा था. इस संग्रहालय को अक्सर दुनियाभर के सबसे अजीब संग्रहालयों में से एक में सूचीबद्ध किया जाता है. यह संग्रहालय 1970 के दशक में शुरू हुई उनकी यात्रा के बारे में बताता है. तब उन्होंने स्वच्छता पर महात्मा गांधी के मार्ग पर चलने और समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के उत्थान का फैसला किया था.

Source : Aaj Tak

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