कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव को फिलहाल 2025 के चुनाव की तैयारी करनी चाहिए
बिहार विधानसभा का चुनाव अगले साल होना है और जब उसके पहले कई अन्य राज्यों में चुनाव होना है तो उस परिप्रेक्ष्य में बिहार के विधानसभा चुनाव को लेकर भविष्यवाणी जल्दीबाजी होगी लेकिन जो संकेत मिल रहे हैं उससे तो केवल एक बात साफ लग रही है, और वह है नीतीश कुमार का एक बार फिर मुख्यमंत्री चुना जाना. खासकर इस कथन को बल बिहार की राजधानी पटना में पिछले दिनों तीन अलग-अलग घटनाओं से मिला. इनका एक-दूसरे से कोई सम्बंध नहीं था लेकिन सबका राजनीतिक अर्थ एक था.
पहला मामला है पटना स्टेशन का जहां पर लालू यादव के शासन में शुरू किया गया दूध मार्केट तोड़कर समतल कर दिया गया. रात में तेजस्वी यादव भागे-भागे विरोध करने पहुंचे लेकिन फिर कुछ घंटों में अपना धरना खत्म कर दिया. यह मार्केट यादवों के, खासकर लालू यादव और उनकी पार्टी का बिहार की सत्ता पर पकड़ और हनक की पहचान था. इस इलाके से मात्र कुछ सौ मीटर की दूरी पर भाजपा के सांसद रामकृपाल यादव का घर है. लेकिन वे तो अपने घर से निकले भी नहीं. जो दर्शाता है कि न केवल लालू-तेजस्वी-रामकृपाल यादव युग का अंत हो चुका है बल्कि इनकी अब इतनी राजनीतिक औक़ात नहीं बची कि यादव समाज की इज्जत से ज़ुड़े एक दूध मार्केट को जमींदोज किया जा रहा था तब वे कुछ कर सकें. हालांकि इस मार्केट को जब भी पटना स्टेशन के सौंदर्यीकरण के नाम पर तोड़ने की कोशिश होती थी तब लालू यादव अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर रुकवा लेते थे.
दूसरे मामले में बिहार के नवनियुक्त राज्यपाल फागू चौहान ने भाजपा के अति पिछड़ी जातियों में से एक वर्ग नोनिया, बेलदार कानु महासंघ के बैनर तले आयोजित एक समारोह में भाग लिया. राजभवन से विशेष रूप से मीडिया वालों को फोन किया गया कि कवरेज करें. इस कार्यक्रम में बिहार भाजपा के सभी नेता मंच पर मौजूद थे. निश्चित रूप से भाजपा ने राज्यपाल को इस मंच पर बुलाकर कोई अच्छी परंपरा की शुरुआत नहीं की लेकिन उसकी परेशानी है कि तमाम प्रयासों के बावजूद समाज के इस वर्ग में वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पैठ का काट नहीं ढूंढ पाई है. और वह जानती है कि इस वर्ग का जब तक नीतीश को विश्वास हासिल है तब तक बिहार की सत्ता में परिवर्तन एक बहस का विषय हो सकता है लेकिन सत्ता के शीर्ष पर इसका असर नहीं दिखेगा. बकौल बिहार भाजपा के नेता जिस प्रकार नीतीश कुमार ने अति पिछड़े के लिए अब तक पूरे बिहार में तीन सीट मुज़फ़्फ़रपुर , झंझारपुर और सुपौल से इस बार कटिहार और जहानाबाद तक से इस समुदाय के अंदर आने वाली जातियों के लोगों को संसद सदस्य बनने का मौका दिया उसके बाद मात्र जाति के सम्मेलन में राज्यपाल को खड़ा कर देने से दाल नहीं गलने वाली.
शायद इस वास्तविकता का अंदाजा भाजपा के अलावा राजद को भी है, इसलिए तेजस्वी यादव जब अपने नए घर में जाते हैं तब वहां पहली बैठक अति पिछड़े समुदाय की करते हैं. उनकी ज़ुबान पर अब समाज के अति पिछड़े समुदाय को पार्टी और टिकट में हिस्सेदारी देना है. लेकिन राजद के नेता भी मानते हैं कि इन अति पिछड़ी जातियों को जोड़ने की मुहिम और बिहार की राजनीति में उनका महत्व समझने में लालू तेजस्वी ने बहुत समय गंवाया है. इसके रिज़ल्ट के लिए अगले साल के विधानसभा चुनाव में उम्मीद करना बेकार है, इसीलिए उन्हें 2025 तक इंतजार करना होगा.
वहीं नीतीश की पार्टी विधानसभा चुनाव के लिए पोस्टर लगाना शुरू करती है तो भाजपा के नेता सुशील मोदी की सलाह होती है कि एनडीए में नेतृत्व पर कोई संशय नहीं, चुनाव में समय है. उनका मतलब नीतीश कुमार और उनके समर्थकों से ही होगा कि विकास के काम पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. सुशील मोदी को ये बात भलीभांति मालूम है कि बिहार में अगर वर्तमान एनडीए विधानसभा चुनाव एक साथ लड़ी तो बहस का मुद्दा यह होगा कि आखिर क्या 2010 की 206 सीटों पर अपनी विजय का रिकॉर्ड और कितनी अधिक सीटों से तोड़ेगी, क्योंकि बिहार में एनडीए और महागठबंधन के बीच अब वोट का अंतर बीस प्रतिशत से अधिक का है जिसको पाटने की क्षमता फिलहाल राजनीति में नौसिखिया और व्यवहार में घमंडी तेजस्वी यादव के पास नहीं है. नीतीश को सत्ता में वापस आने से रोकने में तेजस्वी इसलिए भी फेल रहेंगे क्योंकि जब उनके पिता लालू यादव 2010 में रामविलास पासवान के साथ मैदान में थे तब उनकी पार्टी 22 सीटों पर सिमटकर रह गई थी. और जब अब पासवान उनके साथ नहीं तब सामान्य ज्ञान यही बताता है कि एनडीए की सीटें बढ़ेंगी और राजद 22 से कम सीटें जीतेगी. वैसे भी लोकसभा चुनाव में जब आप विधानसभा वार सीटों पर जीत का अंतर देखेंगे तो तेजस्वी यादव केवल सोशल मीडिया पर सक्रिय होकर उसकी भरपाई नहीं कर सकते हैं.
जमीनी सच्चाई यह भी है कि लोकसभा चुनाव के बाद पूरे देश की तरह बिहार में भी भाजपा की लोकप्रियता और वोटरों में जोश बढ़ा है. इसका एक कारण कश्मीर के किए धारा 370 को खत्म करना है. इस निर्णय के बाद कश्मीरी जनता भले परेशानी झेल रही है लेकिन इस देश में एक बड़े वर्ग में इसको लेकर खुशी है. यह एनडीए के कोर वोटर हैं और नीतीश इस जमीनी सच्चाई से भलीभांति परिचित हैं इसलिए उनकी पार्टी ने लोकसभा और राज्यसभा में टोकन विरोध कर बाद में नए कानून का डंके पर समर्थन कर दिया. यह इस बात का संकेत है कि नीतीश अपनी विचारधारा के लिए अब कुर्सी को दांव पर लगाने से रहे. वैसे भी नीतीश एक ऐक्सिडेंटल समाजवादी हैं जो अपने सिद्धांत को समय-समय पर नए तरीके से परिभाषित करते हैं. इसलिए मुद्दों पर अपने नेताओं के माध्यम से पार्टी की राय जरूर रखेंगे, जैसे एनआरसी के मुद्दे पर हुआ, लेकिन उसको एक सीमा से ज़्यादा तूल नहीं दिया जाएगा.
आने वाले समय में अगर राम मंदिर के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मंदिर बनाने के पक्ष में आता है तो अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहेंगे तो नीतीश मंदिर का ईंट जोड़ने की कतार में भी खड़े होंगे. लोग भूल जाते हैं कि लोकसभा चुनाव के दौरान नीतीश कुमार और उनकी पार्टी देश के उन गिने चुने दलों में से एक थी जिसने अपना घोषणा पत्र इसलिए नहीं जारी किया कि भाजपा को उससे परेशानी होती. नीतीश ने किसी मीडिया वालों को इंटरव्यू नहीं दिया कि वे उनसे वह सवाल करेंगे जिस पर उनके जवाब से भाजपा को सफ़ाई देनी होती. यह बात अलग है कि उसी नीतीश कुमार को चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा ने खाली हाथ, मतलब केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनके मनमुताबिक जगह दिए बिना, पटना लौटने पर मजबूर किया. और यही नई भाजपा है जिसके लिए नीतीश जितने कदम अपनी राजनीति में पीछे रखें लेकिन अब की भाजपा अपने फ़ीडबैक के आधार पर आकलन करती है और वैसे ही आपको भाव देती है.
बिहार के अगले विधानसभा चुनाव को लेकर सबसे बड़ा सस्पेंस इसी बात को लेकर है कि क्या भाजपा एक बार अपने बलबूते सरकार बनाने की कोशिश करेगी. इसका आधार यही है कि आने वाले कुछ महीनों में बगल के झारखंड में भाजपा अपने बलबूते सरकार बनाने जा रही है.और जब बंगाल में वह वोटरों के बीच ध्रुवीकरण कराके मुख्य विपक्ष की जगह ले सकती है तो बिहार में क्यों नहीं. लेकिन ऐसी मांग करने वालों को लोकसभा चुनाव के दौरान अमित शाह की पटना में मीडिया वालों को नसीहत याद रखनी चाहिए कि बिहार में त्रिकोणीय राजनीति एक सच्चाई है और यहां दो से उनका मतलब भाजपा और जनता दल यूनाइटेड से था, एक साथ आ गए तो तीसरे का दुर्गति तय है. दिक्कत है कि नीतीश के सामने चेहरा कौन होगा और दूसरा भाजपा के नेता मानते हैं कि अगर नीतीश फिर जीत के आ जाएं तो पूरे देश की राजनीति में भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं. लेकिन नीतीश और भाजपा दोनों को सत्ता में एक-दूसरे के साथ जो कम्फ़र्ट है वह किसी और दल और गठबंधन में दोनों को नहीं मिल सकता. लेकिन भाजपा के नेता भी मानते हैं कि नीतीश कुमार के प्रति जनता में किए गए काम के आधार पर एक जो मौन वोट बैंक बना है वो उनके हर वादों को पूरा होने के साथ दिनोंदिन बढ़ा है. इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
नीतीश कुमार का सबसे बड़ा राजनीतिक दुश्मन न राजद है और न भाजपा, बल्कि उनका उनकी पार्टी के ख़ुद के पोस्टर के अनुसार ‘ठीके है‘ की उनकी वर्तमान मानसिकता. माना जाता है कि जो भी इस पोस्टर और नारे के पीछे है वह नीतीश कुमार से भलीभांति परिचित है. और शायद उसने अपने निजी अनुभव या नीतीश कुमार के व्यवहार से तंग आकर सबसे उपयुक्त शब्द ‘ठीके है’ का चयन किया. इसके पीछे नीतीश कुमार का व्यवहार है. अब चाहे विधि व्यवस्था हो, या विकास आलोचना को वे फीडबैक नहीं मानते और घटनाओं को चुनौती के रूप में नहीं लेते. लेकिन उनकी सब कुछ पर यही प्रतिक्रिया होती है ठीके है… एक ही बाइट होती है, घटनाओं को कौन रोक सकता है. यही उनकी प्रतिक्रिया होती है. उनके अपने निर्णय, जैसे शराबबंदी, जिसे माना जाता है पूरे बिहार के पुलिस वालों के लिए हर दिन बोनस स्कीम है, के कारण पुलिस तंत्र और भ्रष्ट हुई है. समाज में एक समानांतर व्यवस्था कायम हुई है और सरकारी ख़ज़ाने को अपनी ज़िद में नीतीश ने हर साल चपत लगाई. नीतीश की यह योजना कितनी सफल है इसका अंदाज़ा आपको बगल के झारखंड और बंगाल के आबकारी से होने वाले राजस्व से लग जाएगी. लेकिन उसके बावजूद उन्होंने पूरे समाज में अपराधियों की एक नई फ़ौज खड़ी कर दी, लेकिन तब भी सब ठीके है…
जहां एक ओर शराबबंदी के कारण अब बिहार में अपराध खासकर हत्या की घटनाओं में वृद्धि आई है वहीं हर घर नल का जल हो, हर वृद्ध के लिए पेंशन हो या दलित या अति पिछड़ी जाति के छात्रों के किए मुफ़्त राशन की व्यवस्था, यह सब ऐसी स्कीमें हैं जिसके कारण फ़िलहाल अगले साल नीतीश के लिए सत्ता में वापसी उनके विरोधी भी मानते हैं कि एक औपचारिकता होगी. और अगर एनडीए एकजुट होकर लड़ा तो देखना यह होगा कि कौन पार्टी कितनी सीटें तालमेल में पाती है और किसका कितना स्ट्राइक रेट होता है. जहां तक विपक्ष का सवाल है तो सबकी जिज्ञासा केवल इसमें होगी कि तेजस्वी और तेजप्रताप अपनी सीट बचा पाने में कामयाब होते हैं या नहीं. वैसे चुनावी समीकरणों को देखें या चुनावी अंकगणित को, नीतीश कुमार फिलहाल अपने विरोधियों पर हर तरह से भारी पड़ रहे हैं.
Input : NDTV
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