बांकाः आज शारदीय नवरात्र का तीसरा दिन है. पूर्वी बिहार एवं अंग प्रदेश क्षेत्र का प्रसिद्ध तांत्रिक शक्ति सिद्धि पीठ स्थल के रूप में मशहूर तिलडीहा दुर्गा मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगने लगी है. करीब चार सौ वर्ष प्राचीन यह मंदिर बांका और मुंगेर जिले की सीमा पर बदुआ नदी के तट पर है. वैसे तो यहां पूजा-अर्चना के लिए हमेशा श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है लेकिन नवरात्र पर इसका अलग ही महत्व है. विजयादशमी तक देखें तो श्रद्धालुओं की भीड़ लाखों में पहुंच जाती है. मां तिलडीहा के दरबार में आज भी बलि प्रथा का प्रचलन है.

बंगाल के हरिबल्लभ दास ने की थी स्थापना

जानकारी के अनुसार, बंगाल राज्य के शांतिपुरा जिले के दालपोसा गांव के हरिबल्लभ दास दो भाई थे. दोनों भाई मां दुर्गा के उपासक थे. किसी विवाद के कारण हरिबल्लभ दास अपने घर से भाग कर तिलडीहा स्थित श्मशान पहुंच गए. जिन्होंने वर्ष वर्ष 1603 में तांत्रिक विधि से 105 नरमुंड पर तिलडीहा स्थित बदुआ नदी के किनारे श्मशान घाट में मां भगवती दुर्गा के मंदिर की स्थापना की थी. इसके बाद यहां तांत्रिक पूजा शुरू हुई जो आजतक चल रही है. वर्तमान में उन्हीं के वंशज इस मंदिर के मेढ़पति योगेश चंद्र दास हैं.

अबतक कच्चा है माता का पिंड स्थल

समय के अनुसार इस मंदिर के स्वरूप में भी परिवर्तन किया गया. पूर्व में पुआल के मंदिर से खपड़ैल व फिर खपड़ैल से पक्का बना दिया गया लेकिन मंदिर के अंदर की जमीन व माता का पिंड स्थल आज भी कच्ची मिट्टी का ही है. यहां के लोगों का कहना है कि माता का यह आदेश है कि पिंड कच्चा ही रहेगा. इस मंदिर को लोग आज भी खप्पड़वाली मां के नाम से जानते हैं.

मन्नत मांगने के लिए भी पहुंचते हैं लोग

इस मंदिर की एक खास विशेषता यह है कि यहां मां भगवती के खड़ग व अरधा प्राचीन काल का है जिससे पहली बलि मेढ़पति के द्वारा ही बंद मंदिर में दी जाती है. मान्यता के अनुसार मां दुर्गा को लाल चुनरी बहुत ही प्रिय है, जिसे चढ़ाने से भक्तों की मुरादें पुरी होती हैं. इसी आस्था व विश्वास के साथ यहां दशहरा के महाअष्टमी के साथ-साथ प्रत्येक मंगलवार व शनिवार को बिहार, झारखंड, बंगाल, यूपी, नेपाल से बड़ी संख्या में श्रद्धालू यहां पहुंचकर मां दुर्गा को चुनरी चढ़ाकर मन्नतें मांगते हैं. यह हर वर्ष हजारों श्रद्धालू दूर-दूर से मुंडन एवं अन्य अनुष्ठान कराने आते हैं.

सिद्धि के लिए पहुंचते हैं तांत्रिक

शक्ति सिद्धि पीठ रहने के कारण बिहार, झारखंड, बंगाल, यूपी आदि राज्यों से सैकड़ों तांत्रिक तंत्र-मंत्र विधा की सिद्धि के लिए अष्टमी को पहुंचते हैं. इस भव्य आयोजन में ग्रामीण व जिला प्रशासन के साथ-साथ मुंगेर जिला प्रशासन का भी काफी सहयोग रहता है.

मेढ़पति ही रखते सारे हिसाब-किताब

करोड़ों का सालाना आय प्राप्त करने वाला यह मंदिर न तो किसी ट्रस्ट के अधीन है और न ही कोई आय-व्यय का हिसाब लेता है. मेढ़पति परिवार ही मंदिर में आने वाली करोड़ों रुपये की आय का संचय कर मंदिर को अपने अनुसार चलाते हैं.

मंदिर पहुंचने के लिए तारापुर से वाहन उपलब्ध

यहां आने के लिए बांका जिले के शंभूगंज के रास्ते एवं मुंगेर जिला के तारापुर से हमेशा वाहन उपलब्ध रहता है. ट्रेन मार्ग से आने के लिए सुल्तानगंज व जसीडीह उतरने के बाद तारापुर के लिए वाहन आसानी से मिल जाता है.

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