पिछले मौसम में लोगों ने चीनी की चाशनी में डूबे लीचीगुल्ले (लीची से बना रसगुल्ला) का मजा लिया था। इस बार उन्हेंं मुरब्बे का स्वाद चखने को मिलेगा। राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र, मुशहरी (एनआरसीएल) लीची पल्प को मुरब्बे का रूप देने में जुटा है। निदेशक डॉ. एसडी पांडेय के नेतृत्व में विज्ञानी प्रॉसेस में लगे हैं। अनुसंधान केंद्र इसे अपनी तकनीक के आधार पर विकसित कर रहा है, जिससे उत्पाद को बाजार के अनुकूल बनाया जा सके। साथ ही मुरब्बे की सेल्फ लाइफ और स्वाद की परख भी हो सके।
एक किलो मुरब्बा तैयार करने में 80 से 90 रुपये लागत
विज्ञानी डॉ. अलेमवती पोंगेनर बताते हैं कि मुरब्बा बनाने के लिए फ्रेश लीची के छिलके को हटाकर स्टील के विशेष चाकू से बीज निकाला जाता है। बिना छिलका तथा गुठली के पल्प को पानी से धोकर सुखाया जाता है। इससे पल्प की अतिरिक्त नमी खत्म हो जाती है। फिर इसे स्टरलाइज्ड डिब्बे में रखा जाता। ऊपर से चाशनी (चीनी, पानी तथा साइट्रिक एसिड का घोल) डाली जाती है। यह उतनी ही मात्रा में रखी जाती है, जिससे पल्प मिक्स होकर लटपटा हो जाए। विज्ञानी बताते हैं कि इसकी सेल्फ लाइफ एक साल तक होती है। एक किलो मुरब्बा तैयार करने में 80 से 90 रुपये लागत आ रही है। बाजार भाव 150 से 200 तक होगा। इससे पहले लीची के रसगुल्ले, किशमिश, शहद व जूस तैयार किए जा रहे हैं। मुजफ्फरपुर के बेला स्थित एक कंपनी इस प्रकार के उत्पादों से भी जुड़ी है, जो विभिन्न प्रांतों में सप्लाई कर रही है।
लीची उत्पाद बनाने व बेचने के लिए जुड़े 20 किसान
निदेशक बताते हैं कि 19 मई से 15 जून तक बागों में लीची रहती है। लेकिन विभिन्न उत्पादों के बनने से इसकी उपलब्धता वर्ष भर होगी। लीची उत्पाद बनाने व बेचने के लिए 20 किसान को जोड़ा गया है। इसमें मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण व समस्तीपुर के अलावा पश्चिम बंगाल के किसान भी शामिल हैं। बिहार लीची उत्पादक संघ के अध्यक्ष बच्चा प्रसाद सिंह का कहना है कि लीची के उत्पाद तैयार होने से किसानों को लाभ है। वे एनआरसीएल से प्रशिक्षण प्राप्त कर अपना काम शुरू कर सकते हैं। लीची के सभी उत्पाद एनआरसीएल के काउंटर से खरीदे जा सकते हैं।
Source : Dainik Jagran