कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की इस रचना की एक-एक पंक्तियां देशवासियों के शरीर के रोंगटे खड़े करने के साथ, उनमें वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के अद्भूत शौर्य, पराक्रम और बलिदानी भावना को भर देती है. 29 बरस की आयु में अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिला देने वाली 1857 की स्वतंत्रता क्रांति की द्वितीय शहीद वीरांगना रही झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की आज जयंती है. राष्ट्र की स्वाधीनता के महायज्ञ में अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाली मां भारती की इस “छबीली” ने पूरे ब्रिटिश शासन को नाकों चने चबावा दिए थे. आइये इस दिवस पर उनकी शौर्यगाथा से आपको रुबरु कराते है…

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मणिकर्णिका का प्रारंभिक जीवन

19 नवम्बर 1828 को वाराणसी में मोरोपंत तांबे के घर जन्मीं रानी लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन इन्हें प्यार से मनु और छबीली कहकर संबोधित किया जाता था. बाद में 1842 में 14 साल की उम्र झांसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर से विवाह के बाद इन्हें झांसी की रानी के नाम से जाना जाने लगा. मणिकर्णिका ने 4 साल की छोटी उम्र में ही अपनी मां भागीरथीबाई को खो दिया था. घर में देखभाल के लिए किसी के ना होने के चलते पिता मोरोपंत जो मराठा बाजीराव (द्वितीय) के दरबार में सेवा देते थे, वे मणिकर्णिका को दरबार में लाने लगे. जहां मणिकर्णिका ने शस्त्र और शास्त्र दोनों कलाओं में दक्षता प्राप्त की.

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मनु से झांसी की रानी बनने की कहानी

राजा गंगाधर राव मणिकर्णिका के कदमों को झांसी के लिए अत्यंत शुभ मानते थे. यहीं कारण था कि विवाह के बाद उन्होंने उनके नाम को साक्षात माता लक्ष्मी का स्वरुप मानते हुए रानी लक्ष्मीबाई कर दिया था. राजा गंगाधर राव ने अपने कुशल नेतृत्व के चलते अंग्रेजों को अपने राज्य से खदेड़ दिया था, जिसके चलते अब वे और उनकी झांसी दोनों अंग्रेजों की नजर में फांस की तरह चुभने लगी लेकिन दूसरी ओर रानी लक्ष्मीबाई जो बचपन से स्वतंत्र विचारों और निडर प्रवृति के चलते राजा गंगाधर के इस शौर्य के साथ अपने वैवाहिक जीवन का सुख भोग रही थीं.

दोनों के विवाह के करीब 8 बरस बाद सन 1851 में झांसी को उसका वंशज मिला. पूरे झांसी में उत्सव का माहौल था लेकिन नियति को कुछ ओर ही मंजूर था. जन्म के 4 माह बाद ही झांसी का कुलदीपक बुझ गया. कल तक जिस झांसी में खुशी से ढोल-नगाड़े बज रहे थे अब वहां शोक का सन्नाटा पसरा था. पुत्र शोक में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य गिरने लगा और धीरे-धीरे सारे वैद्य, हकीमों की कोशिशें जवाब दे गईं. 1853 में राजा का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर मंत्रियों ने उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी. गोरे अंग्रेजों तो इसी दिन के इंतजार में थे. अंतत: एक बालक को गोद लिया गया, जिसका नाम दामोदर रखा गया. इसके कुछ दिनों बाद ही 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी.

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जब अंग्रेजों ने बिछाया कुटिल जाल

बिना राजा की रियासत पाते ही अंग्रेजी हुकूमत और पड़ोसी विरोधी राजा झांसी पर भूखे भेड़ियों की तरह टूट पड़े.पुत्र और पति शोक में डूबी रानी लक्ष्मीबाई के पास अब विलाप के लिए भी समय शेष ना रहा. झांसी की बागडोर अब उन्होंने बिना देरी किए स्वयं के हाथों में ले ली. दूसरी ओर अंग्रेजी सरकार ने अपनी हड़प नीति के चलते झांसी का कोई वारिस नहीं होने के चलते उस पर चढ़ायी की योजना बना ली. और दत्तक पुत्र दामोदर के खिलाफ मुकदमा दायर कर आखिरकार राज्य का सारा खजाना जब्त कर लिया. और उन्हें किला छोड़ रानीमहल में रुकने को मजबूर कर दिया. लेकिन शेर दिल रानी लक्ष्मीबाई ने साहस न खोते हुए अब हर परिस्थितियों को डटकर सामना करने का मन बना लिया था.

दुर्गा दल का किया गठन

रानी लक्ष्मीबाई ने ईस्ट इंडिया कम्पनी और लार्ड डलहौजी की नीतियों के विरुद्ध सशक्त सेना बनाने का निश्चय कर दुर्गा दल का गठन किया और अपनी झांसी को किसी भी कीमत पर अंग्रेजों को नहीं देने की घोषणा कर दी. इस बीच युद्धों में लक्ष्मीबाई की विश्वसनीय साथी रहीं कोल योद्धा झलकारीबाई, जो सदैव रानी की परछाई बन उनके साथ रहती थीं. वह स्वयं रानी लक्ष्मीबाई के समान वेशभूषा धारण कर युद्धों का नेतृत्व करती और रानी की हमशक्ल बनकर अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकने का काम करती. 1857 के सितंबर-अक्टूबर में अपने पड़ोसी राज्यों के किए आक्रमणों का रानी लक्ष्मीबाई और उनकी सेना ने मुंह तोड़ जवाब दिया.

ग्वालियर से किया युद्ध का शंखनाद

इस बीच अंग्रेजों ने भी बिना समय गवाए झांसी पर चढ़ाई कर दी. नवंबर 1857 में झांसी, चारों ओर से घिर गई. लगातार युद्ध की मार झेलते हुए रानी की मुट्ठी भर सेना थक चुकी थी. नतीजतन रानी लक्ष्मीबाई बेटे दामोदर को पीठ पर बांध वहां से निकलकर कालपी में तात्या टोपे के पास जा पहुंची. जहां से उन्होंने बाकी स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर संयुक्त रूप से क्रांति का बिगुल फूंक कर ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी. ग्वालियर विजय के बाद जहां बाकी सभी विजयी उत्सव में आनंद लें रहे थे तो वहीं, दूसरी ओर रानी लक्ष्मीबाई निकट भविष्य में आने वाले संघर्ष का स्पष्ट रूप से आभास कर रही थी. अंग्रेजी सेना जल्द ही किले के दरवाजे पर आ पहुँची. इसके बाद शुरू हुआ ग्वालियर का वो भीषण युद्ध जिसमें रानी लक्ष्मीबाई ने अपने राष्ट्र व राज्य के स्वाभिमान के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया. रानी की कुशल रणनीति के कारण अंग्रेजी सेना को काफी मशक्कत करने के बाद भी किले में घुसने का मौका नहीं मिल रहा था. सात दिनों तक किले की तोपें आग उगलती रहीं. रानी की द्वार रक्षा व व्यूह रचना देख अंग्रेजों के जनरल ह्यूरोज ने दांतो तले अंगुली दबा ली. आठवें दिन 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई बेटे दामोदर को पीठ पर बांधे रणक्षेत्र में कूद पड़ी और वीरता से अंग्रेजी सेना से लड़ीं. युद्ध क्षेत्र में रानी लक्ष्मीबाई की फुर्ती ऐसी जान पड़ती मानो स्वयं रणचंडी असुरों के संहार करने के लिए इस धरती पर आ उतरी हों.

अंतिम सांस तक किया संघर्ष

गोरे अंग्रेजों के खून से अपनी प्यास बुझाती उनकी तलवार पग-पग पर स्वतंत्रता संग्राम की विजयीगाथा लिख रही थीं. इसी बीच युद्ध क्षेत्र में उनके घोड़े ने घायल होकर दम तोड़ दिया. रानी लक्ष्मीबाई यकायक दूसरे घोड़े पर सवार हो आगे बढ़ीं ही थीं कि उनके सामने एक नाला आ गया. नया घोड़ा ठिठक कर वहीं रुक गया, इसी बीच एक अंग्रेजी सिपाही ने उनके सिर पर तलवार का वार किया जिससे वो बुरी तरह घायल हो गई, बावजूद उसके इस शेरनी ने उसके प्राण ले लिए और अंत में वीरगति को प्राप्त हो गई.

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