– ये वक़्त बहुत ना’जुक है, भ’यावह है- रूह को झ’कझोर देने वाला है, क्या इस आ’ग में कोई धर्म मि’टेगा, किसी का कोई खुदा या कोइ भगवान मरेगा. नहीं ज’लेंगे हम और सिर्फ इंसान म’रेगा. ये जो न’फ़रत की आ’ग में ज’लता खू’नी मंजर है, तुम्हारे हाथ में जो खं’जर है, उस खंज’र से होने वाले क’त्ल के छीटे तुम्हारे अपनों पर भी पड़ेंगे, आखिर कैसे हम मर जाये, इस वक़्त जो महा’मारी फ़ैली है उसमें हमारी भी तो कुछ जिम्मेदारी है.

जिनके हाथों ने हथियार उठा रखे है उन्हे कल अपने कंधों पर लाशें उठाना होगा, घर से निकलने से पहले अपने बच्चों की शक्ल देखना कहीं, उनके सीने पर चीत्कारता कल ना हो – ये जो नफ़रत की आग फैली है इससे बस इस धरती पर रहने वाले इंसान जलेंगे भगवान और खुदा तो उपर वाला है और वो निश्चित हमें देख रहा होगा, अगर इंसान हो तो आग में घी नहीं बल्कि पानी डालें, हम कब इतने खोखले हो गए, विचार किजीए – इंटरनेट और सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का ठोस माध्यम है क्यों यहाँ नफरत की बीज बो रहे है, बन्द कमरों में बैठ जहर न उगले ना ही कुछ ऐसा लिखें जिसकी इजाजत आपकी ज़मीर न देती हो, हम सब एक ही तो है – हमारी मंदिर तुम्हारी मस्जिद कब कहता है कि लड़ो, ये दुनिया बहुत बड़ी है और इसे बनाने वाला का कोई कुछ नही बिगाड़ सकता, बिगड़ेंगे हम अपना- ये जो लाशें दिल्ली की सड़कों पर घसीटी जा रही है ये किसी का बेटा तो किसी का भाई है, सिर्फ इंसान नहीं वो किसी बच्चें की रोटी है, किसी का भाई मरेगा किसी का बाप कई बच्चें अनाथ हो जाएंगे, जब घर में बाप नहीं होगा तो भूख से रोयेंगे, किसी को भड़काने से पहले कही आग लगाने से पहले सोचना तुम्हारा भी घर परिवार है.. होली आने वाली है सलीम चाचा से कुर्ता सिलवाना है, और हाँ अब्दुल भाई होली के दिन आपको घर जरूर आना है, और रमजान भी करीब है राकेश- महेश के घर खजूरी के साथ इफ़्तार भेजवाना है.. ये कौन ज़ाहिल है जो नफ़रत की आग लगा रहे है, कैसे मर जाए हम, महामारी का वक़्त नफरत की आग बुझाना है, सबको समझाना है.

 

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अभिषेक रंजन, मुजफ्फरपुर में जन्में एक पत्रकार है, इन्होंने अपना स्नातक पत्रकारिता...

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