दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… 

जनाब, हिन्दुस्तान की तारीख़ी क़िताबों में कमाल के किरदार दर्ज़ हैं. ऐसे कि दुनिया के किसी और मुल्क में शायद ही कहीं मिलें. मिसाल के लिए एक वाक़ि’अे पर ग़ौर कीजिए. अंग्रेजों के ज़माने की बंगाल प्रेसिडेंसी (सूबा) में मुज़फ्फरपुर शहर की अदालत है. वहां 18 बरस और आठ महीने से कुछ ज़्यादा के एक लड़के को लाया गया है. साल है 1908 का. तारीख़ शायद 26 या 27 मई की है. इस लड़के का मुक़दमा 21 मई से शुरू हुआ है. आरोप है कि इसने उसी साल 30 अप्रैल को मुज़फ्फरपुर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट डगलस हॉलिंसहेड किंग्सफोर्ड को जान से मारने की कोशिश की है. इस कोशिश के दौरान उनकी घोड़ा-गाड़ी पर बम फेंका. उस वक़्त चूंकि किंग्सफोर्ड घोड़ा-गाड़ी में नहीं थे, इसलिए वे तो बच गए. लेकिन मुज़फ्फरपुर की अदालत के वरिष्ठ वकील प्रिंगल कैनेडी की पत्नी और बेटी की जान चली गई. क्योंकि घोड़ा-गाड़ी में हमले के वक़्त वे दोनों बैठी थीं. मसला संगीन है. हालात को देखते हुए तय लगता है कि लड़के को मौत की सज़ा मिलेगी.

Independence Day | Remembering Khudiram Bose: The 18-year-old martyr who smiled at death | Deccan Herald

तीन जजों की बेंच है. इसके मुखिया हैं- जज कॉर्नडॉफ. जज नाथुनी प्रसाद और जनक प्रसाद. लड़के ने पहले-पहल बचाव के लिए कोई वकील लेने से मना कर दिया. पर कई वकील उसके पक्ष में दलीलें देने को तैयार हैं. उन सभी ने मनाया, तब वह वकालत-नामे पर दस्तख़त करने को राज़ी हुआ. बचाव पक्ष ने वरिष्ठ वकील नरेंद्र कुमार को लड़के की तरफ़ से अदालत में पेश होने के लिए तैनात किया. लेकिन इससे पहले कि वे उस लड़के को बचाने का कोई कानूनी रास्ता ढूंढते, उसने अपना ज़ुर्म क़बूल कर लिया. अब आज फ़ैसले का दिन है. वकील साहब ने अब भी हार नहीं मानी है. वे दलील दे रहे हैं, ‘मी लॉर्ड, आरोपी अभी कम-उम्र है. ज़रा सोचिए योर ऑनर, इतनी सी उम्र में क्या ये बम बना सकता है? मुमकिन है, जोश-जोश में इससे कोई नादानी हुई हो. जिस तरह सीना तानकर उसने ज़ुर्म क़बूल किया, उससे भी उसकी कम-समझ ज़ाहिर होती है. इसे राहत दी जाए’.

ज़िरह पूरी होने के बाद अब जजों की बारी है. बचाव पक्ष की दलीलों का कोई ख़ास असर नहीं हुआ है. अभियोजन पक्ष ने तमाम गवाह और सुबूत पेश किए हैं. इनसे पता चलता है कि यह लड़का 14-15 साल की उम्र से ही अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहा है. इन्हीं वजहों से पहले दो बार जेल गया है. क्रांतिकारी गतिविधियां चलाने वाली बड़ी तंज़ीम (संगठन) ‘अनुशीलन समिति’ से इसका सीधा तअल्लुक़ रहा है. इसी तंज़ीम के नेताओं ने इसको बम बनाना भी सिखाया है. इस तरह, तमाम सबूत पुख़्तग़ी करते हैं कि इसने कम-उम्र के बावजूद हर काम होश-ओ-हवास में किए हैं. जनाब, अभियोजन पक्ष के गवाहों, सुबूतों, दलीलों से जज मुतमइन दिख रहे हैं. लिहाज़ा, ऐसे संगीन ज़ुर्म के लिए कानूनन जो सजा तय रही, वही सुनाई जानी है. लड़के को फ़ांसी पर चढ़ाए जाने का फ़ैसला दिया जाना है.

हालांकि इससे पहले बेंच के जज कॉर्नडॉफ सवाल करते हैं, ‘क्या तुम्हें फ़ांसी की सज़ा का मतलब पता है?’. जनाब, इस सवाल पर उस लड़के ने जो ज़वाब दिया, उस पर ग़ौर कीजिए, ‘जी, माई लॉर्ड. अच्छी तरह जानता हूं, इस सज़ा का मतलब. और उस दलील को भी समझ रहा हूं, जो मेरे वकील साहब ने मुझे बचाने के लिए दी है. उन्होंने कहा है कि मैं अभी कम-उम्र हूं. इस उम्र में बम नहीं बना सकता. जज साहब, मेरी आपसे गुज़ारिश है कि मुझे थोड़ा सा वक़्त दिया जाए. आप ख़ुद मेरे साथ चलें. मैं उतने वक़्त में आपको भी बम बनाना सिखा दूंगा’. भरी अदालत में अंग्रेज जज को इस तरह का ज़वाब देने वाले लड़के के साथ क्या हुआ होगा जनाब? क्या लगता है आपको? उसे राहत मिली होगी? यक़ीनी तौर पर नहीं. अदालत ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुना दी. ऊपर अपील का वक़्त भी दिया. लेकिन ऊपरी अदालतों ने मुज़फ्फरपुर की अदालत के फ़ैसले पर मुहर ही लगाई. उस लड़के को फ़ांसी दे दी गई फिर.

वह तारीख़ आज, यानी 11 अगस्त की थी. साल 1908 का ही. और उस लड़के का नाम था खुदीराम बोस. खुदीराम, जिनको फांसी पर चढ़ाने के बाद वह हुआ, जिसकी बहुतों को उम्मीद नहीं थी. मसलन, 11 अगस्त को ही कलकत्ते की सड़कों पर हजारों नौजवान अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आए. बताते हैं कि उस विरोध-प्रदर्शन के दौरान कई लड़कों ने ख़ास क़िस्म की धोतियां पहनी थीं. उन पर कढ़ाई से खुदीराम बोस लिखा हुआ था. बाद में, यह नाम लिखी धोती पहनने वाले युवाओं की तादाद, कहते हैं, हजारों में हुई. क्योंकि कलकत्ते और आस-पास के जुलाहों ने लंबे वक़्त तक ‘खुदीराम बोस’ लिखी हुई धोतियां बनाने का काम किया था. गोया कि एक खुदीराम को फ़ांसी पर लटकाते ही अंग्रेज सरकार के सामने सीना तानकर खड़े होने के लिए हजारों पैदा हो गए हों. जनाब सोचकर देखिए, तारीख़ में ऐसी दीवानगी किसी और के लिए हुई, याद आता है क्या?

All India Radio News on Twitter: "Tributes were paid to fearless freedom fighter Khudiram Bose at Muzaffarpur Central jail in Bihar. Bose was executed on August 11, 1908 in Muzaffarpur jail after

‘खुदीराम’ ख़ुद भी तो एक दीवाने का ही नाम हुआ है न. इनके बारे में सरकारी दस्तावेज़ के अलावा सरकार की ही एक वेबसाइट (इंडियनकल्चरडॉटगॉवडॉनइन) पर ठोस जानकारियां दर्ज़ है. इनके मुताबिक, तीन दिसंबर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में खुदीराम की पैदाइश हुई. पिता तहसीलदार थे और खुदीराम उनके इक़लौते लड़के. सबसे छोटे. इनसे ऊपर तीन लड़कियां थीं. हालांकि खुदीराम के जन्म के कुछ साल बाद ही माता-पिता का इंतिक़ाल हो गया. इसके बाद बड़ी बहन ने इनकी ज़िंदगी में मां-बाप का किरदार निभाया. अलबत्ता खुदीराम के ज़ेहन में छुटपन से देश के लिए कुछ कर गुज़रने का ज़ुनून सवार हो गया. अभी वे बहन के गांव हाटगच्छा में हेमिल्टन हाईस्कूल में पढ़ ही रहे थे कि उन्होंने वहां महर्षि अरबिंदो और सिस्टर निवेदिता के भाषण सुन लिए. ये दोनों ही उन दिनों गांव-क़स्बों में जाकर लोगों को जगाने का काम किया करते थे.

महर्षि अरबिंदो और सिस्टर निवेदिता के भाषणों ने खुदीराम के दिमाग पर ऐसा असर किया कि वे जल्द ही क्रांतिकारियों की तंज़ीम ‘अनुशीलन समिति’ के कामों में हिस्सा लेने लगे. ऐसे ही 1905 में एक बार उन्हें गिरफ़्तार भी कर लिया गया. वे तब 1905 में हुए बंगाल-बंटवारे के विरोध में जनता के बीच पर्चे बांट रहे थे. तभी पकड़े गए. हालांकि बाद में कम-उम्र की वज़ह से उन्हें छोड़ भी दिया गया. इस वक़्त खुदीराम की उम्र 15 बरस के आस-पास रही. हालांकि इस गिरफ़्तारी से जैसे खुदीराम का हौसला बढ़ गया. वे जल्द ही ‘अनुशीलन समिति’ के सीधे मेंबर बन गए और वहां उन्होंने बम वग़ैरा बनाना भी सीख लिया. बताते हैं, इसी दौरान एक बार और पकड़े गए लेकिन सुबूतों की कमी के कारण छोड़ दिए गए. अलबत्ता, तीसरे मौके पर ऐसा न हो सका. यह मौका था, किंग्सफोर्ड की घोड़ा-गाड़ी पर बम फेंकने का. उस वक़्त जज किंग्सफोर्ड से क्रांतिकारी बहुत ख़फ़ा रहा करते थे.

इसकी वज़ह ये थी कि जब किंग्सफोर्ड कलकत्ते में चीफ़ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट हुआ करता था, तो उसने कई क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ाने की सजाएं सुनाई थीं. छोटी सी वज़हों के लिए सरकार का विरोध करने वालों को कोड़े मारने की सजा सुना दिया करता था. इसीलिए क्रांतिकारियों ने उसे मारने का मंसूबा बांध लिया. सरकार को इसकी भनक लग चुकी थी. इसलिए किंग्सफोर्ड का तबादला मुज़फ्फरपुर कर दिया गया. लेकिन क्रांतिकारियों ने वहां भी उसे ख़त्म करने की योजना तैयार कर ली. ख़ुदीराम इस काम के लिए आगे आए. उनके साथ हुए प्रफुल्ल कुमार चाकी. दोनों नाम बदलकर मुज़फ्फरपुर पहुंचे. खुदीराम बने हरेन सरकार और प्रफुल्ल चाकी ने नाम लिया दिनेश राय का. वहां पहुंचकर एक बिहारी ज़मींदार परमेश्वर नारायण महतो की धर्मशाला में ठहरे. पहले पूरी तैयारी की उन्होंने. ये पता किया कि किंग्सफोर्ड कब किस वक़्त कहां आता-जाता है.

जब सब कुछ पुख़्ता हो गया तो रात के आठ-साढ़े आठ का वक़्त तय किया गया. इस वक़्त अंग्रेज अफ़सरों के क्लब से फ़ारिग़ होकर किंग्सफोर्ड अपनी बग्घी से घर के लिए निकला करता था. तभी रास्ते में एक सुनसान जगह पर उसकी बग्घी पर बम फेंके जाने की तैयारी हुई थी, जो कि फेंका भी गया. इसके बाद खुदीराम और प्रफुल्ल अलग-अलग दिशाओं में भागे. लेकिन इधर, बम फेंके जाने की घटना होते ही सरकारी मशीनरी हरक़त में आ चुकी थी. इसलिए पुलिस ने रात को कुछेक घंटों में ही चाकी को घेर लिया. हालांकि वह पकड़े जाते कि इससे पहले ही उन्होंने ख़ुद को गोली मार ली. उधर, खुदीराम वैनी की तरफ़ भागे थे. वहां तक पहुंचते-पहुंचते उन्हें सुबह हो गई थी. क़रीब 25 किलोमीटर का सफ़र तो उन्होंने भागकर या पैदल ही तय किया. कहते हैं, वैनी रेलवे स्टेशन पर वे रेलगाड़ी में सवार भी हो गए थे कि तभी पुलिस ने तलाशी के दौरान संदेह के आधार पर उन्हें पकड़ लिया.

All India Radio News on Twitter: "Tributes were paid to fearless freedom fighter Khudiram Bose at Muzaffarpur Central jail in Bihar. Bose was executed on August 11, 1908 in Muzaffarpur jail after

खुदीराम को हथकड़ी डालकर वैनी से मुज़फ्फरपुर लाया गया. उन्हें गिरफ़्तार किए जाने की ख़बर आग की तरह इलाके में फैल चुकी थी. मुज़फ्फरपुर रेलवे स्टेशन और पुलिस थाने में युवाओं की भीड़ लग गई थी. इतनी कि उसे संभालने के लिए पुलिस को मशक़्कत करनी पड़ रही थी. देश के लिए जान देने को तैयार एक दीवाने को देखने के लिए हजारों की तादाद में दीवानों का हुज़ूम उमड़ आया था मानो. ऐसी किसी शख़्सियत को भला अंग्रेज सरकार क्यों अपनी मुसीबत बनने, बने रहने के लिए छोड़ती भला? फ़ांसी पर लटका दिया उसने. यह सोचकर कि उसने ‘खुदीराम को ख़त्म कर दिया’. हालांकि बंगाल और ख़ासकर कलकत्ते की सड़कों उभर आए ‘हजारों खुदीराम’ ने अंग्रेजों की सोच ग़लत साबित कर दी. और फिर कवि पीतांबर दास ने तो ‘एक बार बिदाई दे मां’ जैसा गीत लिखकर खुदीराम को हमेशा के लिए बंगाल की लोक-संस्कृति का हिस्सा ही बना दिया.

Source : News18 | Nilesh Diwedi

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